Tuesday 1 November 2022
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निर्मल आनंद की पपी की एक खासियत इसका कैमरावर्क है जो आपको बांधे रखता है — कई जगह तो आप खुद को फिल्म का कोई किरदार समझने लगते हैं

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Reporting fromमुंबई
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पहले तो शीर्षक “निर्मल आनंद की पपी” पढ़ कर उत्तेजित हुए जा रहे लोग यह समझ लें कि उसमें ‘पप्पी’ नहीं ‘पपी’ लिखा है यानी कुत्ते का पिल्ला। दरअसल इस फिल्म के हीरो का नाम है निर्मल आनंद। उसके पास परी नाम की एक कुतिया है जिसे वह बेहद चाहता है। एक दिन वह कुतिया मर जाती है और निर्मल की ज़िंदगी रूखी व सूखी होने लगती है। इधर उसकी शादीशुदा ज़िंदगी में भी उथल-पुथल सी मची है। कुछ है जो मिसिंग है निर्मल और साराह के बीच में। तभी आती है एक ‘पप्पी’ (इस बार चुंबन) और धीरे-धीरे चीज़ें बदलने लगती हैं। कैसे? यह फिल्म में ही देखें तो बेहतर होगा।

संदीप मोहन अलग किस्म के राइटर-डायरेक्टर हैं। उनकी अब तक आईं लव रिंकल फ्री, होला वेंकी, श्रीलांसर जैसी फिल्में तो आम सिनेमाई दर्शकों तक पहुंच भी नहीं सकी हैं। बावजूद इसके वह अलग किस्म का सिनेमा बनाने में पूरी शिद्दत से जुटे रहते हैं। इस फिल्म में वह निर्मल और साराह के बहाने से असल में महानगरीय जीवन के अकेलेपन और भागदौड़ में पीछे छूटते उस निर्मल आनंद की बात करते हैं जो पैसे से नहीं खरीदा जा सकता।

निर्मल आनंद की पपी में संदीप का लेखन अलग किस्म का है तो उनके निर्देशन में भी लीक से हट कर चीज़ों को देखने और दिखाने की ललक दिखती है। कई जगह उन्होंने चुप्पी से तो कहीं सिर्फ विज़ुअल्स से कुछ कहने का सार्थक प्रयास किया है। फिल्म की एक खूबी इसके कलाकार भी हैं जिन्हें अभी तक ज़्यादा देखा नहीं गया है। करणवीर खुल्लर, जिल्लियन पिंटो, खुशबू उपाध्याय, सलमीन शेरिफ, विपिन हीरू, अविनाश कुरी, नैना सरीन या फिर ट्रैफिक कांस्टेबल के सिर्फ एक सीन में आए प्रशेन क्यावल, सभी अपने-अपने किरदार को भरपूर जीते हैं और इसीलिए कलाकार नहीं, किरदार लगते हैं।

निर्मल आनंद की पपी की एक खासियत इसका कैमरावर्क भी है जो भव्य नहीं है लेकिन आपको बांधे रखता है — कुछ इस तरह से कि कई जगह तो आप खुद को फिल्म का ही कोई किरदार समझने लगते हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक और गीतों से भी फिल्म निखरी है। हां, कहीं-कहीं यह ज़रूर लगता है कि इसकी एडिटिंग और कसी हुई होनी चाहिए थी।

पिछले दिनों निर्मल आनंद की पपी देश के अलग-अलग शहरों में कुछ एक थिएटरों पर रिलीज़ हो चुकी है। डायरेक्टर संदीप मोहन इसे खुद अलग-अलग शहरों में ले जा रहे हैं। इंडिपेंडेट सिनेमा को थिएटरों में रिलीज़ करना अब भी इतना आसान नहीं है। साथ ही संदीप की कोशिश है कि इसे जल्द किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर लाया जाए। कहीं मिल जाए तो इसे देखिएगा ज़रूर। यह आपको पप्पी भले न दे पाए, कुछ हट के वाला सिनेमा देखने का निर्मल आनंद ज़रूर देगी, यह तय है।

दीपक दुआ

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