लड़का-लड़की पंजाब में मिले तो देसी लड़के को हाई-क्लास लड़की से प्यार हो गया। लेकिन लड़की के लिए तो वह बस एक टाइम-पास था। जान छुड़ाने के लिए उसने बोल दिया कि तीन महीने बाद लंदन में मेरी शादी है। अगर तू आ गया तो मैं शादी तोड़ दूंगी। लो जी, लड़के ने लंदन पहुंचने के लिए सारे घोड़े खोल दिए। जायज़ नहीं तो नाजायज़ तरीके से वहां पहुंचने की जुगत में लग गया। पर क्या वह पहुंचा पाया…? लड़की के दिल में अपने लिए प्यार पैदा करवा पाया…? उसकी शादी तुड़वा पाया…? फिल्मी फिलॉसफी है कि किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात आपको उससे मिलाने में जुट जाती है। जग्गी ने भी कार्तिका को पूरी शिद्दत से चाहा था। उसके लिए अवैध तौर-तरीके अपना कर उस तक पहुंचने में भी लग गया। इस काम में उसे उस आदमी की मदद भी मिली जिसकी प्रेम-कहानी से वह इन्सपायर हुआ था। पर क्या उसकी शिद्दत को देख कर कायनात जुटी उसकी मदद को?
कहानी रोचक है। इसे फैलाया भी सलीके से गया है। जग्गी की हरकतों में खिलंदड़ेपन के बावजूद कार्तिका के प्रति उसके प्यार की खुशबू हमें साफ महसूस होती है। लेकिन कहानी को फैलाने में जितनी मेहनत लगती है, उसे समेटने में उससे कहीं ज़्यादा। इस मोर्चे पर फिल्म थोड़ा निराश करती है… थोड़ा नहीं, बल्कि कहीं-कहीं कुछ ज़्यादा ही। इंटरवल के बाद वाले हिस्से में जब जग्गी किसी न किसी तरह से कार्तिका तक पहुंचने की जद्दोज़हद में लगा होता है तो कई बार कहानी पटरी से उतरती है, इसकी गति धीमी पड़ती है और पकड़ ढीली। हालांकि यह बार-बार संभलती भी है और अपने आखिरी स्टेशन पर ठीक से पहुंचती भी है लेकिन बीच-बीच में इसका बिखरना इसे दर्शकों के मन से उतार-सा देता है। दिक्कत दरअसल यह भी आने वाली है कि हमने तो इसे बड़े पर्दे पर प्रैस-शो में देखा जबकि दर्शक इसे डिज़्नी-हॉटस्टार पर देखेंगे जहां ज़रा-सी बोरियत से ही सीन फॉरवर्ड करने का ऑप्शन तलाशा जाने लगता है।
कुणाल देशमुख को सलीके से कहानी कहने का हुनर आता है। सच तो यह है कि इस फिल्म में वह पहले से काफी मैच्योर हुए हैं। बड़ी बात यह भी है कि वह जन्नत, जन्नत 2 वाली भट्ट कैंप की शैली से उबर गए हैं। इस फिल्म में उन्होंने कई जगह उम्दा तरीके से दृश्य संयोजित किए हैं। गानों के लिए भी सटीक जगह निकाली गई है और इसी वजह से एक-आध को छोड़ बाकी के गाने अच्छे भी लगते हैं। गाने लिखे और बनाए भी बढ़िया गए हैं। कहीं-कहीं झूला खाती स्क्रिप्ट को कुणाल थोड़ा और तान कर रख पाते तो यह फिल्म बेमिसाल भी हो सकती थी। कैमरा वर्क और लोकेशंस प्यारे लगते हैं। आर्ट-डिपार्टमैंट वाले ज़रूर कहीं-कहीं गच्चा खा गए।
सन्नी कौशल प्यारे और चुलबुले लगे हैं। उनके अंदर एक चार्म है जो आपको उनके करीब जाने को प्रेरित करता है। अच्छे किरदार पकड़ते रहें तो वह बड़े भाई विक्की कौशल से अलग और उजली पहचान बना लेंगे। राधिका मदान ने काफी सधा हुआ काम किया है। मोहित रैना दिन-ब-दिन और अच्छे लगते जा रहे हैं। डायना पेंटी भी अपने किरदार में जंचीं। मोहित और डायना वाले ट्रैक को थोड़ा रोचक बनाना चाहिए था।
बावजूद कुछ कमियों के यह फिल्म खराब कत्तई नहीं है। यह न सिर्फ शिद्दत वाले प्यार को दिखाती है बल्कि उसे महसूस भी करवाती है। प्रैक्टिकल सोच रखने वाले लोगों को कुछ सीक्वेंस भले ही अखरें लेकिन इश्क के दरिया में उतर चुके या मोहब्बत के रस को चख चुके लोग इसे एकदम से नहीं नकार पाएंगे। इस फिल्म की खुमारी चढ़ेगी ज़रूर, धीरे-धीरे, कुछ सब्र के साथ।
दीपक दुआ
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