फ्रांस में निर्मित छः राफ़ाल युद्धविमानों के भारत पहुँचते ही कांग्रेस ने पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है जिससे न तो पार्टी को 2019 के आम चुनाव में कोई फ़ायदा हुआ और न ही देश के सर्वोच्च न्यायालय से कोई ऐसा निर्णय आया जिससे ‘चौकीदार चोर है’ के नारे को बुलंद किया जा सके। पर द्वितीय विश्वयुद्ध में नात्सी प्रोपगंडा के लिए कुख्यात जोसफ गोएबेल्स की तरह राजनैतिक पार्टियाँ और उनके नेता बर्ताव करे तो बात समझ में आती है, जब मीडिया के शिक्षित पत्रकार उस दुष्प्रचार में शामिल हो जाएं तब या तो पूर्वाग्रह या फिर मूढ़ता की बू आती है। ऐसा ही एक दृष्टान्त लल्लन टॉप ने स्थापित किया है। उनके हिसाब से राफ़ाल एक निकृष्ट विमान है जो पाकिस्तान के हाथ लगे अमेरिकी युद्धविमानों का मुक़ाबला नहीं कर सकता। जवाब में यह कहा जा सकता है कि आधुनिक F-16 ने तो दशकों पुराने मिग-21 बाइसन के सामने भी घुटने टेक दिए थे — जब पाकिस्तान ने बालाकोट का बदला लेने की कोशिश की थी। यह बात और है कि शर्मिंदगी के मारे न तो पाकिस्तान और न ही अमेरिका ने यह क़बूल किया कि अभिनन्दन वर्तमान के विमान पर आघात से पहले वह अपने दशकों पुराने मिग-21 बाइसन से एक F-16 को धराशायी कर चुका था।
पर राफ़ाल के ख़िलाफ़ प्रोपगंडा इतने लोगों को प्रभावित कर रहा है कि इसपर सामान्य भाषा में तकनीकी ज्ञान बांटना ज़रूरी हो गया है।
इस लेख के तीन भाग हैं। पहले भाग में हम Medium Multi-Role Combat Aircraft (MMRCA) या मध्यम क्षमता वाले बहु-उपयोगी युद्धविमानों के टेंडर की प्रतिस्पर्धा में हार चुकी कंपनियों के बयानों का अध्ययन करेंगे। दूसरे भाग में उनकी हार का विश्लेषण होगा और तीसरे भाग में भारतीय वायु सेना को इस वक़्त राफ़ाल की ही आवश्यकता क्यों थी, और इससे ‘बेहतर’ (यानी भारी-भरकम या 5वीं पीढ़ी के) विमान की क्यों नहीं, इसपर चर्चा करेंगे।
राफ़ाल से हारी कम्पनियों और कम्युनिस्टों की थ्योरी
भारत से ठेका पाने की प्रतिस्पर्धा में शामिल होने से कहीं पहले राफ़ाल और यूरो टाइफ़ून कटाक्ष के शिकार हो गए थे। लीबिया में NATO के युद्ध के दौरान परिहास के सुर में मीडिया में यह लिखा जा रहा था कि मानो NATO की लड़ाई कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी से नहीं हो रही है बल्कि राफ़ाल बनाने वाले दासो एविएशन और टाइफ़ून बनाने वाले यूरोफ़ाइटर कन्सोर्शियम के बीच नुमाइश की जंग हो रही है कि किसने कितनी बार उड़ान भरी, आसमान में कितने घंटे एक-एक विमान रहा और किस विमान ने कितने बम बरसाए।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने बताया कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस डेटा के साथ ये कम्पनियाँ बाज़ार में जाती हैं और इस बात का दम भरती हैं कि हम battle-tested अर्थात युद्ध-परीक्षित हैं; हमपर आप भरोसा करके हमारा माल खरीद सकते हैं। फ़िलहाल यह सवाल रहने देते हैं कि पत्रकारों ने यह सवाल उठाया या यूरोप के कई देशों और अमेरिका द्वारा युद्ध में शामिल होने के बावजूद समतुल्य प्रदर्शन न कर पाने वाली अमेरिकी, स्वीडिश या रूसी विमान कंपियों ने ऐसी मनोहर कहानियाँ मीडिया में प्लांट की। सच्चाई यह है कि एयर शो में लगातार शामिल होने वाले, वॉर एविएशन में रुचि रखने वाले और सामरिक विशेषज्ञों ने भारी संख्या में हमेशा यह राय जनता के बीच रखी कि राफ़ाल dogfight में सर्वोत्तम विमान है — इससे अधिक क्षमता वाले विमानों से भी! दो या अधिक युद्धविमानों के बीच एक-दूसरे को मार गिराने के एयर शोज़ या साझे मिलिट्री एक्सरसाइज़ में नूरा-कुश्ती, या असल जंग में उनके इस प्रकार के प्रदर्शन को ‘डॉगफ़ाइट’ कहते हैं।
डॉगफ़ाइट में बेहतर प्रदर्शन का कारण सिर्फ़ न्यूज़ की परसों प्रकाशित रिपोर्ट में आ चुका है। जहां भारतीय राफ़ाल के आंकड़े पाकिस्तान के चीन में बने JF-17 थंडर और वर्तमान में चीनी वायु सेना के J-20 युद्धविमान के समतुल्य हैं, वहीं राफ़ाल 60,000 फ़ीट प्रति मिनट की रफ़्तार से अचानक उर्द्धमुखी हो सकता है जो पाकिस्तानी विमान से 1,000 फ़ीट प्रति मिनट और चीनी विमान से भी लगभग 120 फ़ीट प्रति मिनट अधिक तेज़ है। इससे दुश्मन द्वारा दागी गई आसमान-से-आसमान को मार करने वाली मिसाइल से बचना आसान हो जाता है।
इसके अलावा एक बार इंधन भर लेने के बाद राफ़ाल पाकिस्तानी व चीनी विमान से क़रीब 1,700 कि०मी० अधिक दूरी की यात्रा तय कर सकता है, जिससे की युद्ध के दौरान पायलट को बार-बार बेस स्टेशन लौटने की ज़रूरत न पड़े। उड़ान के दौरान भी राफ़ाल में इंधन डाला जा सकता है जिससे इसकी हवाई यात्रा और लंबी हो सकती है।
अधिक क्षमता वाले विमानों से बेहतर प्रदर्शन करने के उदाहरण की तुलना हम सड़कों पर दौड़ने वाले वाहनों से कर सकते हैं जिससे कि आम आदमी को लीबिया का अद्भुत दृष्टान्त समझ में आ सके। जब मार्किट में मारुती नई-नई आई थी तब कई कार ड्राईवर यह कहते थे कि जो चढ़ाई 1,800 सीसी के अम्बैसडर और 1,100 सीसी की प्रीमियर पद्मिनी के लिए असंभव थी वह 800 सीसी वाले इंजन युक्त नई गाड़ी आसानी से पार कर जाती थी!
अब भी अगर कुछ लोगों को यह खटक रहा है कि भारत ने 5वीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान क्यों नहीं मंगवाया तो उनके लिए यह जानना ज़रूरी है कि हमारी वायु सेना ने भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भिन्न क्षमताओं के विमान मंगवाए। राफ़ाल ने जो बिडिंग जीती वह MMRCA के लिए ही थी। इससे अधिक क्षमता वाला सुखोई-30एमकेआइ विमान भारत में पहले से ही मौजूद है जिसकी मारक क्षमता चीनी वायु सेना को बेचे गए बेस मॉडल वाले सुखोई से कहीं अधिक है।
सुखोई एक एयर सुपीरिओरिटी विमान है अर्थात इसके द्वारा भारतीय वायु सेना आसमान में अपना दबदबा स्थापित कर सकता है ताकि दुश्मन के लड़ाकू विमान आसपास न फटक सके। लेकिन अपने भारी डीलडौल के कारण दुश्मन के विमानों को चकमा देने के खेल डॉगफ़ाइट में यह शामिल नहीं होता।
लीबिया की जंग के दौरान लगे अन्य आरोप
लीबिया के तीन महीने व्यापी युद्ध में कम्युनिस्टों ने अपनी एक से एक थ्योरी चलाई। उनका कहना था कि बमबारी से जो सड़कों, पुलों, इमारतों आदि का नुकसान हो रहा है इससे पूंजीवादी कंपनियों को लाभ होगा जब अमेरिका लीबिया की भूमि हथिया कर, वहाँ एक कठपुतली सरकार का गठन करने के बाद सारे ठेके अपने बिल्डरों को दे देगा! लीबिया में आज की सरकार भले ही अस्त-व्यस्त हो पर अमेरिकी बिल्डर आज भी दुआ कर रहे हैं कि कम्युनिस्टों की थ्योरी सच साबित हो। ठेके तो बहुत बंटे, लेकिन इतनी सारी कंपनियों को मिले कि कोई मोनोपोली या एकाधिकार का आरोप नहीं लगा सकता।
कम्युनिस्टों से किसी ने यह भी नहीं पूछा कि फ़्रांस राफ़ाल का इस्तेमाल कर लीबिया में अपने ही बनाए हुए मिराजों को क्यों नष्ट कर रहा है? दूसरा, यूरोफ़ाइटर ने मुश्किल से एक साल पहले कर्नल गद्दाफ़ी से एक बड़े कॉन्ट्रैक्ट का आश्वासन पाया था। ये पूंजीवादी कैसे दुकानदार हैं जो अपने ही ग्राहकों को मार डालते हैं?
इसके जवाब में भारत के कम्युनिस्टों ने कहा कि ‘बेचारे’ गद्दाफ़ी के पास पैसा ही कितना था? वह ज़्यादा से ज़्यादा कितने विमान खरीदता? पाँच? दस? भारत से तो सौ से अधिक विमानों का ठेका मिलने वाला था! यानी कम्युनिस्टों के मुताबिक पूंजीवादी कम्पनियाँ चालाक होने के साथ-साथ इतनी बेवकूफ भी हैं कि पक्का सौदा छोड़कर एक ऐसे सौदे के पीछे भागे जहां ग्राहक (सन 2011 की UPA सरकार) से बातचीत शुरू ही हुई है और ग्राहक किसी IAS बाबू की तरह सीधी बात न कर गोल-गोल बातें घुमा रहा है। कभी कह रहा है कि बेसिक मॉडल चाहिए तो कभी कह रहा है कि तमाम हथियारों से लैस विमान चाहिए। कभी 30% तो कभी 50% ऑफसेट (भारत में निर्माण होने वाला हिस्सा) मांग रहा है। मना करने पर यह भी नहीं कह रहा कि आगे बातचीत से कोई फ़ायदा नहीं! यह भी पता नहीं कि ठेका कहीं ग्रिपेन विमान बनाने वाले स्वीडन के साब या मिग बनाने वाले रूस के मिकोयान ग्युरेविच को तो नहीं चला जाएगा!
इस बीच अनर्गल थ्योरी का प्रलाप करने वाले भूल गए कि भारतीय वायु सेना ने टेंडर प्राप्त करने की 600 शर्तें रखी थीं। लीबिया में या और कहीं किसी विमान द्वारा करतब दिखाना इन छः सौ शर्तों में शामिल नहीं था। इनमें से कम से कम 590 मापदंडों पर खरा उतरकर ही किसी कंपनी को संविदा प्राप्त हो सकती थी। यह प्रक्रिया पारदर्शी थी, ओपन बिडिंग में धांधली का अवकाश नहीं था कि कोई कंपनी चोर की तरह पिछले दरवाज़े से घर में दाखिल हो जाए। NDA के आने में अभी वक़्त था, पर सिलसिलेवार घोटालों की चपेट में आई UPA सरकार भी एक और घोटाले के मूड में नहीं थी। 589 मापदंडों पर पास कर के भी किसी कंपनी द्वारा कॉन्ट्रैक्ट हासिल कर लेना संभव नहीं था।
सो कम्युनिस्टों ने अपना आखरी दाव चला — इतनी बेरोज़गारी और ग़रीबी और फिर भी महंगे विमानों पर इतना खर्च? यह सवाल उठाते हुए कम्युनिस्ट भूल गए कि इससे उनकी एक और थ्योरी चारों खाने चित्त हो गई है। थ्योरी यह थी कि पूंजीवादी देश भारत को उंगलियों पर नचाएंगे। हुआ उल्टा। इतने बड़े ठेके के लोभ में ये पूंजीवादी देश भारत की जी-हुज़ूरी करने लगे।
तब तक सत्ता परिवर्तन हो चुका था। कुछ आवाज़ें दक्षिणपंथियों ने भी उठाईं। अमेरिका जैसे प्रभावशाली देश के बजाय ‘हल्के दर्जे’ के फ्रांस से दोस्ती क्यों? कहीं अंकल सैम नाराज़ तो नहीं हो जाएंगे? पर बराक ओबामा से लेकर डॉनल्ड ट्रम्प तक, भारत-अमेरिका रिश्तों में निरंतर प्रगाढ़ता ही आई है। अब इसका श्रेय आप चिनूक और अपाचे हेलीकॉप्टर को दें या P3 ओरियन, C-130 सुपर हर्क्युलीस या C-17 ग्लोबमास्टर को, इसे दो देशों के मैत्रीपूर्ण आपसी संबंधों पर फूहड़ टिप्पणी के अलावा और कुछ नहीं माना जाएगा।
राफ़ाल बनाम F-22 रैप्टर और F-35 लाइटनिंग

ऐसी तुलना करने वालों को प्रौद्योगिकी जानकारी तो क्या, व्यापार की जानकारी तक नहीं है। सबसे पहले F-22 को सूचि से हटा दें क्योंकि इसका अमेरिका के बाहर बिकना वर्जित है। अमेरिका के कई मित्र देशों ने इसे खरीदने की इच्छा ज़ाहिर की है पर अमेरिकी क़ानून इसकी इजाज़त नहीं देता। ऊपर से इच्छुक ग्राहक एक-एक करके तब वापस जाने लगे जब अमेरिका के ही रक्षा मंत्रालय ने एक रिपोर्ट में कहा कि F-22 विमान केवल 55% मिशन ही पूरा कर पाया है; बाक़ी प्रयास असफल रहे हैं।
प्रोजेक्ट ऑन गवर्नमेंट ओवरसाइट नामक अमेरिकी स्वायत्त संस्था ने F-22 विमान बनाने वाले लॉकहीड मार्टिन और अमेरिकी रक्षा विभाग के इस दावे को सिरे से ख़ारिज कर दिया है कि आने वाले वर्षों में विमान के प्रदर्शन में निरंतर उन्नति होगी। संस्था ने साफ़-साफ़ ट्रम्प सरकार को हिदायत दी है कि अमेरिकी करदाताओं के और पैसे इस उपक्रम में डालना उचित नहीं होगा।

ट्रम्प द्वारा F-35 लाइटनिंग की स्टेल्थ (आसमान में रेडार से छिपने की क्षमता) के बखान के बाद भी इसे कोई नया ग्राहक नहीं मिल रहा है। इजराइल, दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन, इटली, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया, टर्की जैसे पुराने ख़रीदार ऐसे देश हैं जो प्रोजेक्ट की शुरुआत में ही आयात के समझौते पर हस्ताक्षर कर अमेरिका के पार्टनर बन गए थे। भारत अगर F-35 लाइटनिंग की मांग करता भी तो अमेरिका के आठ पार्टनर देशों के बाद हमारी बारी आती जब कि दो दशकों से भारतीय वायु सेना सरकार से अपने स्क्वाड्रन्स पूरे करने की गुहार लगा रही है।
सामरिक विशेषज्ञों का कहना है कि चीन और पाकिस्तान द्वारा संयुक्त हमले होने की स्थिति में भारत को कम से कम 42 स्क्वाड्रन्स की आवश्यकता होगी पर हैं हमारे पास केवल 32 स्क्वाड्रन्स। F-35 लाइटनिंग के लिए इतना लम्बा इंतज़ार भारत नहीं कर सकता। और लॉकहीड मार्टिन के कारखानों में इतनी क्षमता नहीं है कि आठ देशों द्वारा आर्डर किये गए विमानों को उनके सुपुर्द कर भारत को भी 120 या उससे अधिक विमान एक साल के अन्दर-अन्दर सप्लाई कर दे।
यह भारत-अमेरिका रक्षा वार्ता के दौरान और MMRCA की बिडिंग के दौरान भी चर्चा का विषय था। अमेरिका ख़ुद समझ गया कि भारत की मांग पूरी करने की स्थिति में वह नहीं है। इसलिए राफ़ाल के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार में वह शामिल नहीं हुआ। राफ़ाल के विरुद्ध प्रोपगंडा की उत्पत्ति यूरोप में हुई लेकिन उस विषय पर हम अभी नहीं बल्कि आगे चर्चा करेंगे।
अमेरिका का रक्षा उद्योग
राफ़ाल के मुक़ाबले खड़े अन्य विमानों पर चर्चा से पूर्व अमेरिकी रक्षा उद्योग को समझना आवश्यक है। अमेरिका में रक्षा क्षेत्र की सारी कम्पनियाँ निजी क्षेत्र की हैं। बोईंग भी और लॉकहीड मार्टिन भी। ये कम्पनियाँ अपनी ज़िम्मेदारी पर प्रत्येक प्रोजेक्ट के लिए रिसर्च तथा डिवेलपमेंट (शोध व विकास) का काम शुरू करती हैं। इतना जोखिम उठाने के बाद इनके द्वारा बनाई गई कई मशीनें और कई हथियारों को वैश्विक बाज़ार में तो क्या, अपने ही देश में ख़रीदार नहीं मिलते। अमेरिकी थल सेना, जल सेना एवं वायु सेना इनका माल ख़रीदने से मना कर देती हैं। सोचिए कि विश्व ने F-16, F-18, F-22 और F-35 का नाम सुना है पर इनके बीच की संख्याएं ग़ायब क्यों हैं? इनमें से ज़्यादातर बोईंग और लॉकहीड मार्टिन के असफल प्रयास रहे हैं — जिन विमानों को कोई ग्राहक नहीं मिला, न देश में, न विदेश में। ऐसे में इन कारखानों में काम करने वाले हज़ारों कर्मचारियों की नौकरी चली जाती है।
चूँकि अमेरिका के अधिकांश लोग निजी क्षेत्र में काम करते हैं, वाशिंगटन-स्थित सरकार के लिए यह एक गंभीर परिस्थिति के रूप में उभर कर आती है। इसीलिए अक्सर अमेरिकी राष्ट्रपतियों को विदेश यात्रा के दौरान सेल्समैन की तरह पेश आते देखा गया है। ये राष्ट्रपति इस बात से चिंतित रहते हैं कि उनके द्वारा अन्य देशों के साथ किए गए सौदों से कितने अमेरिकी नागरिकों को रोज़गार मुहय्या कराया जा सकेगा। अब सोचिए कि इतने व्याकुल और विह्वल सेल्समैन से माल ख़रीदने का जोखिम कोई देश क्यों उठाए?
इन सभी कारणों के बावजूद भारत ने वायु, जल व थल सेना के लिए अमेरिका से कई हेलीकाप्टर, भारी माल वाहक विमान, हथियार और जासूसी उपकरण ख़रीदे। चिनूक और अपाचे हेलीकॉप्टर, P3 ओरियन, C-130 सुपर हर्क्युलीस, C-17 ग्लोबमास्टर आदि युद्ध-परीक्षित हैं। इन आयातों की वजह से अमेरिका ख़ुश रहा और भारत की ज़रूरतों की पूर्ति भी हुई।
युद्धविमान ख़रीदने में आशंका यह भी थी कि देर-सवेर अमेरिका इन्हीं विमानों को पाकिस्तान को भी बेचेगा या पाकिस्तान को बेचे जा चुके विमानों के हूबहू या संशोधित संस्करण भारत के मत्थे मढ़ने की कोशिश करेगा। यह प्रयास वह पिछले दो दशकों से कर रहा है — भारत को कभी F-16 तो कभी F-18 के आधुनिक संस्करण बेचने की चेष्टा होती रही है और भारत ने हर बार इन्हें ख़रीदने से मना किया है। इन्हें वायु सेना में शामिल करने का अर्थ है कि भारत-पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में दुश्मन को पता होगा कि हमारे लड़ाकू विमानों की कमज़ोरियाँ क्या हैं।
राफ़ाल वनाम मिग-35
भारत ने मिग-35 से इंकार मुख्यतः तीन कारणों से किया। पहला यह कि वायु सेना के 70% विमान पहले से ही रूसी हैं। आधुनिक काल में युद्ध का सामना करने के लिए हमारे सुरक्षावृत्त को विविध आयुधों की आवश्यकता है। वरना शत्रु के लिए हमारी क्षमताओं और कमजोरियों का आंकलन सहज हो जाएगा।

दूसरा कारण यह है कि भारतीय वायु सेना ने मिग-35 के परीक्षण में पाया कि हमारे पास पहले से मौजूद मिग-29 और इसके बीच कोई ख़ास अंतर नहीं है।
लेकिन सबसे बड़ा कारण कटु अनुभव है। भारत को बेचे गए एडमिरल गोर्शकोव की मरम्मत करके इसे आइएनएस विक्रमादित्य बनाने में रूसियों ने कई बरस लगा दिए। इस बीच जहाज़ की कीमत समझौते में लिखे मूल्य से कई गुना बढ़ गई। ऊपर से रूसियों ने जहाज़ में जर्जर अवस्था में पड़े कल-पुर्ज़ों को बदलने के पैसे भी भारत से वसूले। रूसियों के इस ग़ैर-पेशेवर व्यवहार से भारत के सुरक्षा तंत्र ने सबक़ सीखा और फिर S-400 प्रक्षेपणास्त्र (मिसाइल) के अलावा किसी रूसी सुरक्षा प्रणाली में ख़ास रुचि नहीं दिखाई।
दरअस्ल लगभग पूर्णतः सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले रूसी रक्षा उद्योग की अवस्था पूंजीवादी अमेरिकी तंत्र से कहीं अधिक जर्जर है। कम्युनिज्म के ख़त्म होने के बाद कर्मचारियों के मन से सरकार के प्रति डर या संभ्रम की भावना भी जाती रही। सो रूस को किसी मशीन या औज़ार का आर्डर देने का अर्थ है बरसों की प्रतीक्षा, समझौते में निर्धारित मूल्य से कहीं अधिक चुकाना और आफ्टर-सेल्स सर्विस उससे भी बदतर।
राफ़ाल वनाम टाइफ़ून
जहां राफ़ाल ने प्रतिस्पर्धा में कई बड़े खिलाड़ियों को पछाड़ा, फ़्रांसिसी कंपनी और उसके प्रोडक्ट पर लांछन लगाने के उद्देश्य से बर्तानिया की तरह ग़लीस हरकत पर कोई नहीं उतरा। जिस दिन भारत ने टाइफ़ून को अस्वीकार किया, यूरोफाइटर के शेयरहोल्डर ब्रिटेन के कई राजनेता दुष्प्रचार पर उतर आए।

लेबर पार्टी के बैरी गार्डिनर ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत की रैंकिंग गिरा दी जाएगी। बर्तानिया के कई सांसदों ने भारत को ‘एहसान फ़रामोश’ या कृतघ्न बताया। क्या साम्राज्यवाद से ग्रसित इन गोरों के विचार में भारत को इस बात का एहसान मानना चाहिए था कि अंग्रेज़ों ने यहाँ सौ-दो सौ साल तक राज किया? शायद नहीं।
ब्रिटेन के नेताओं को 2012 की एक और घटना परेशान कर रही थी। उसी साल भारत ने ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय विकास विभाग (Department for International Development या DfID) को यहाँ अपनी दुकान बंद करने को कहा था। मनमोहन सिंह सरकार के मुताबिक़ भारत की गिनती अब उन ग़रीब देशों में नहीं की जा सकती थी जिन्हें पाश्चात्य की संस्थाओं से दारिद्र्य उन्मूलन कार्यक्रम हेतु अनुदान लेना पड़े। सामंतवादी बर्तानिया के शासक वर्ग को यह बात खटक रही थी कि उनके धौंस जमाने के दिन पूरे हो गए थे।
जहाँ तक तकनिकी मामलों का विषय है, राफ़ाल और टाइफ़ून की अलग-अलग विशेषताएँ हैं। राफ़ाल की ज़मीन पर मारक क्षमता, रेडार की गुणवत्ता और डॉगफ़ाइट में प्रदर्शन बेहतर है तो टाइफ़ून एक और एयर सुपीरिओरिटी विमान है जिसका समकक्ष सुखोई भारत में पहले से मौजूद है।
इसके अलावा कंसॉर्शियम कई रिश्वत के मामलों में फंसा हुआ है। सन 2002 में हुए ऑस्ट्रिया के साथ EADS समझौते के बाद वहाँ की वामपंथी पार्टी एसपीओ ने तत्कालीन सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था। अपनी सरकार बनने के बाद 2006 में पार्टी ने डील कैंसिल कर दी जिसे येन-तेन-प्रकारेन 2007 में चालू किया गया। अल-यम्माह डील के अंतर्गत इस कंपनी ने सऊदी अरब सरकार के साथ भी घोटाले किए। सन 2010 में बीएई ने माना कि कंपनी भ्रष्ट है। इसके उपरांत कंसॉर्शियम के इस साझेदार को 285 मिलियन यूरो का हरजाना भरना पड़ा।
कौन कर रहा है दुष्प्रचार की फ़न्डिंग?
अंत में राफ़ाल की क़ीमत से सम्बंधित कांग्रेस द्वारा लगाए गए आरोपों पर भी रौशनी डालनी चाहिए। इस सन्दर्भ में विस्तृत लेख सिर्फ़ न्यूज़ पर पहले से मौजूद है जिससे यह साबित होता है कि जिस अवस्था में UPA सरकार ने दासो से बातचीत बंद की, यदि वहीं से बात आगे बढ़ाई गई होती तो तमाम मिसाइलों, बेहतर प्रौद्योगिकी और ऑफ़सेट के प्रावधान के साथ कांग्रेस महंगा सौदा कर रही थी। कांग्रेस के मुक़ाबले प्रति विमान NDA सरकार ने रु० 59 करोड़ की बचत की।
क़ीमत के सन्दर्भ में जनता के बीच यह बात फैलनी चाहिए कि जिस वक़्त मोदी सरकार फ़्रांस व दासो के साथ मोल-भाव कर रही थी, उन्हीं दिनों दक्षिण भारत से कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता दासो के ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा में खड़े बोईंग के साथ बातचीत करने अमेरिका गए हुए थे। इस नेता का नाम आंध्र प्रदेश टाइटेनियम घोटाले से जुड़ा हुआ है।
दूसरी तरफ़ राफ़ाल सौदे की ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले वकील प्रशांत भूषन अपने दलीलों में वही बातें करते हैं जो खिसियाए हुए यूरोफ़ाइटर कंसॉर्शियम के शेयरहोल्डर्स ने राफ़ाल से बिडिंग हारने के बाद की थी।
इस प्रसंग में निर्लज्जता की पराकाष्ठा बनकर द हिन्दू अख़बार के पूर्व सम्पादक एन राम उभरे जिन्होंने रक्षा मंत्रालय से कुछ दस्तावेज़ मंगवाकर स्वर्गीय मनोहर पर्रीकर द्वारा लिखे गए नोट को छिपाकर किसी अदना आमले की आपत्ति की बड़ी ख़बर बनाई। ट्विटर पर जल्द ही पोल खुल जाने के बाद भी आज तक एन राम ने माफ़ी नहीं मांगी है। इस तरह चोरी और फिर सीनाज़ोरी कोई मुफ़्त में नहीं करता।
गौरतलब है कि UPA सरकार के अगस्तावेस्टलैंड वाले कांड में लिप्त बिचौलिया क्रिस्चियन मिशेल टाईफ़ून की भी दलाली करता है। अंततः कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी संदेह के घेरे में हैं जब से उन्हें 2018 के सितम्बर में कंसॉर्शियम के लोगों से जर्मनी में मुलाक़ात करते हुए देखा गया।
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