हाल ही में कलकत्ता में हिन्दी भाषा को समर्पित एक कार्यक्रम के दौरान केन्द्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने एक तरफ़ तो कहा कि भाषा सरल और सहज होनी चाहिए पर दूसरी तरफ़ अपने बयान के साथ यह भी जोड़ दिया कि “जो आसानी से सभी को समझ में आ जाए” वह भाषा हिन्दी है! उधर इंग्लैंड में आयोजित एक मनोरंजन के कार्यक्रम के दौरान कई श्रोताओं ने विख्यात संगीत निर्देशक ए० आर० रहमान का इसलिए बहिष्कार कर दिया कि वे कई गाने तमिल में गा रहे थे जो उन श्रोताओं को समझ में नहीं आ रहा था। हालांकि कार्यक्रम की घोषणा और उसका प्रचार तमिल भाषा में किया गया था जिससे उस शाम लोगों की अपेक्षा यदि यह रही हो कि अधिकांश गाने हिन्दी में होंगे तो सवाल उनकी अक़्ल पर उठना चाहिए। परसों रात इस मुद्दे पर एक चैनल पर अच्छी-ख़ासी बहस हुई जिसमें बताया गया कि रहमान ने बल्कि हिन्दी में एक गाना अधिक गाया था — तमिल में 12 और हिन्दी में 13। वो तो अच्छा हुआ कि पाँच रोज़ पहले की मंत्री वाली बात दक्षिण भारत तक नहीं पहुँची। इस बात को सिर्फ़ एक ही हफ़्ता हुआ था कि बेंगलुरु मेट्रो के कई स्टेशन्स पर हिन्दी में लिखे स्थानों के नाम पर कालिख पोत दी गई थी; शहर का सारा कारोबार ठप्प होने की कगार पर पहुँच गया था।
बहुत सारे मसायल को समझते हुए हिन्दी/उर्दू बोलने वालों को यह भी समझना होगा — बल्कि गाँठ बांध लेना होगा — कि कई कारणों से हिन्दी न बोलने वाले भारतियों के लिए हिन्दी का आकर्षण कुछ ख़ास नहीं है। हिन्दी फिर भी आकर्षित कर सकती है, यह और बात है जिसपर मैं बाद में अपने विचार व्यक्त करूंगा। जहाँ एक ओर दक्षिण भारत (ख़ास कर तमिल नाड और केरल) के लोगों को हिन्दी समझने में कठिनाई होती है वहीं दूसरी ओर बंगाल के लोग हिन्दी समझते तो हैं पर इसे बंगाली या बांग्ला के मुक़ाबले निकृष्ट भाषा समझते हैं।
साथ ही साथ हिन्दी न बोलने वाले क्षेत्रों में यह भी मान्यता है कि हिन्दी दरअस्ल उर्दू का एक और नाम है जहाँ अरबी और फ़ारसी मूल के शब्दों को हटाकर उन स्थानों पर संस्कृत मूल के शब्द घुसेड़ दिए गए हैं — व्याकरण और वाक्य संरचना को बिना बदले हुए — जो कि आज से क़रीब 150 साल पहले हुआ, जिससे पहले आज के हिन्दी भाषी अपने-अपने गाँवों और घरों में ब्रज, अवधी, मगही, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी आदि भाषाएँ बोला करते थे और साहित्यिक रचनाएँ भी उन्हीं भाषाओं में हुआ करती थीं।
इसकी तुलना में आज जिस भाषा को हिन्दी के नाम से जाना जाता है वह अमीर ख़ुसरो (1253-1325) के ज़माने में हिन्दवी, फिर ज़बान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला और आख़िर उर्दू के नाम से 13वीं शताब्दी से प्रचलित है। उस काल के लगभग 400 साल बाद भी तुलसीदास (1532–1623) ने रामचरितमानस की रचना की अवधी में, न कि आज जैसी हिन्दी में। यहाँ तक कि 200 से कम वर्ष पूर्व भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) ने अपनी रचनाएं ब्रज या भाखा में लिखीं, आज वाली हिन्दी में नहीं। हुकूमत-ए-बर्तानिया से आज़ादी के बाद कथित हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के चक्कर में धीरे-धीरे यह बात जनमानस के मस्तिष्क में डाल दी गई कि ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मगही आदि देहात की बोलियाँ हैं जिनका मानक वह रूप है जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, विद्यालयों में पढ़ाई जाती है और उत्तर भारत के कार्यालयों में पत्र-व्यवहार में काम आती है।

इस अंतराल में कुछ बदलाव और आए। उर्दू का इतिहास भले ही ख़ुसरो से शुरू होता हो, इसे प्रयोग में केवल पश्चिम एशिया से आए लूटपाट मचाते, बलात्कार करते, मंदिरों को तोड़ते मुसलमान सैनिक लाते थे। इस्लाम का शासन स्थायित्व प्राप्त करने के बाद भी मुग़लिया सल्तनत उर्दू को एक घटिया ज़बान समझा करती थी तथा अपने दरबारों में फ़ारसी में गुफ़्तगू किया करती थी। शाही, आधिकारिक इतिहास भी फ़ारसी में लिखे जाते थे। पर चूँकि फ़ारसी विदेशी भाषा थी, यह भारत में लोकप्रिय कभी न बन पाई (हालाँकि सन 1911 तक तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के गज़ेट में भारत की एक आधिकारिक भाषा के रूप में बनी रही)। औरंगज़ेब के बाद आए नाम-के-वास्ते मुग़ल सम्राटों में कट्टरता भी कम थी। इतने में काव्य के जगत में मीर तक़ी ‘मीर’ पधार चुके थे और मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान ‘ग़ालिब’ के आते-आते कथित सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र का ज़माना आ गया था। दिल्ली से दूर लखनऊ के कर वसूली करने वाले मुग़लों के मातहत मुलाज़िम रहे अधिकारी कब के विद्रोह कर चुके थे और नव्वाबों के नाम से छोटी-मोटी रियासतों में तख़्तनशीं हो चुके थे। पर अय्याशी और शायरी तक तो उर्दू परिस्थितियों को संभाल लेता था; मुश्किल तब पेश आई जब भाषा का इस्तेमाल शिक्षा क्षेत्र में ज़रूरी हो गया। ख़ास कर तकनीकी शब्द तो उर्दू में थे ही नहीं! सो, फ़ारसी जिस भाषा पर इन कारणों से निर्भरशील थी, उर्दू को भी उसी भाषा के दर भीख मांगने की आवश्यकता आन पड़ी — अरबी। इससे उर्दू बोलने वाले हिन्दुओं को बड़ी कठिनाई पेश आई। ऐसे में तत्कालीन पंडितों ने उत्तर भारत के भाषा जगत में शान्ति से एक अनोखे विद्रोह को अंजाम दिया। उर्दू के वाक्य-विन्यास को जस का तस रखते हुए लगभग सारे अरबी के शब्दों को समानार्थक तत्सम शब्दों में बदल दिया। यह प्रयोग ब्रज या अवधी के साथ करना संभव नहीं था क्योंकि भक्ति काल के तुलसीदास से रीति काल के बिहारी लाल तक आते-आते आधुनिक-पूर्व काल तक इन भाषाओँ पर हमारी पकड़ कमज़ोर हो गई थी। भारतेंदु जैसे एकाध प्रकांड विद्वान् ही तब भी अपनी कल्पना को भाखा में पिरो सकते थे।

19वीं शताब्दी में पंडितों द्वारा पाठशालाओं में किया गया प्रयोग स्वतंत्र भारत में परवान चढ़ा। ज़फ़र के साथ-साथ इस्लामी राजाओं का शासन तब तक तक़रीबन 90 साल पीछे छूट चुका था। भारत का पश्चिमी प्रान्त पाकिस्तान बन चुका था। और अधिकांश स्वतंत्रता सेनानियों एवं पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की उर्दू बोली के बावजूद आम लोग तत्सम शब्दों की तरफ़ खिंचे चले जा रहे थे और फ़ारसी या नस्तालीक़ लिपि में लिखे मज़मून नहीं पढ़ पा रहे थे। आने वाले दशकों में इस आम व्यवहार को भारत और पाकिस्तान में औपचारिक रूप दिया गया। भारत में हिन्दी भाषा के शिक्षक यह कहने लगे कि अरबी व फ़ारसी मूल के शब्द “अशुद्ध” हैं जब कि संस्कृत मूल के शब्दों को पाकिस्तान में काफ़िरों के साथ जोड़ा गया। यही वजह है कि आज भारत के ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी उर्दू नहीं समझ पाते और पाकिस्तानी भारतीय हिन्दी।
दरअस्ल इन दोनों मुल्कों के ठेकेदारों ने अपनी-अपनी कमज़ोरियों को एक औपचारिकता का श्रद्धेय जामा पहनाया है। यह सच है कि हिन्दी बोलने वाले अधिकतर लोगों को संस्कृत नहीं आती और उर्दू बोलने वालों को अरबी। इस कमी को छिपाने के लिए और अपनी ग्लानि से मुक्ति के लिए इन दोनों ने हिन्दी-उर्दू के वाक्य-विन्यास को न छेड़ते हुए उसी ढाँचे में, यथाक्रम से, तत्सम और अरबी शब्द प्रतिस्थापित कर दिए। भारत में ब्रज और अवधी को हिन्दी का मध्यकालीन रूप बताया गया जब कि सच यह है कि सूरदास और तुलसीदास दोनों की भाषाएँ आज की हिन्दी से भिन्न थीं। हिन्दी बोलने वालों को यह भले ही समझ में न आए, रामचरितमानस पढ़ने वाले किसी भी बंगाली या तमिल भाषी को उन पदों की ध्वनि के चरित्र से यह महसूस होगा कि यह भाषा (अवधी) और कुछ भी हो, हिन्दी नहीं है। इसके विपरीत ख़ुसरो की पहेलियों के कुछ शब्दों कि लिए कोष की आवश्यकता पड़ती है पर सुनने में हिन्दवी आज की हिन्दी जैसी ही लगती है। अतः ब्रज और अवधी न तो हिन्दी की जननी है और न ही देहाती बोली।

हिन्दी और उर्दू दो अलग-अलग भाषाओं के नाम हैं ही नहीं; विदेशी (जैसे मध्य एशिया के लोग) उर्दू को हिन्दी कहते हैं क्योंकि यह हिन्द की भाषा है; वर्तमान परिप्रेक्ष में भारत के अन्दर भी हिन्दी और उर्दू एक भाषा के दो मानक हैं। क्योंकि शब्द के स्रोत से भाषा की पहचान नहीं बनती; वाक्य विन्यास से बनती है जो कि दोनों में एक समान है। इसके अलावा भाषा लिखावट से अधिक बोली से पहचानी जाती है — वहाँ फ़र्क़ न के बराबर है। वैसे भी एक समय था जब हिन्दी देवनागरी में लिखी जाए और उर्दू नस्तालीक़ में, या हिन्दू देवनागरी में लिखे और मुसलमान नस्तालीक़ में — ऐसा कोई रिवाज नहीं था।
तो यदि ये भाषाएँ एक ही हैं तो आज के युग में हिन्दी बोलने वालों को यह स्वीकार करने में संकोच हो सकता है कि जिस उर्दू को वो हिन्दी मान रहे हैं वह एक समय लुटेरों, फिर तवायफ़ों, अय्याशों और आख़िर कंगाल और जुआरी शायरों की भाषा हुआ करती थी, पर सच तो यही है। अब यह बताइए कि तिरुवल्लुवर की कृतियों के धनी तमिल भाषी इस कोठे की भाषा को कैसे अपना ले? वन्देमातरम् की ध्वनि से गुंजायमान बंगाल अनपढ़, किराए के सैनिकों की बोली बोलने लगे तो क्यूँ कर?
इन ऐतिहासिक व बौद्धिक कारणों से हिन्दी का भारत में सर्वमान्य होना मुश्किल है। यह बात और है कि आज की तारीख़ में समूचे उत्तर भारत में केवल एक ही भाषा है, आधुनिक हिन्दी, जिसे राजस्थान से लेकर बिहार तक सभी बोल और समझ सकते हैं जब कि ब्रज, अवधी आदि के प्रभाव क्षेत्र सिंकुड़ गए हैं। परन्तु इस दृष्टि से भी देखा जाए तो आधुनिक हिन्दी केवल हिन्दी भाषियों की ज़रूरत सी महसूस होती है।
इससे भी महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्रों में हिन्दी कितनी कारगर सिद्ध होती है। हिन्दी भाषियों द्वारा एक तर्क दिया जाता है कि यदि अंग्रेज़ी के दबदबे के बावजूद फ़्रांस के लोग फ़्रांसीसी में अध्ययन कर सकते हैं तो भारतीय हिन्दी में वही काम क्यों नहीं कर सकते? वो यह भूलते हैं औद्योगिक आन्दोलन के दौरान विज्ञान के खोजों और आविष्कारों में फ़्रांस का योगदान बर्तानिया से कुछ कम नहीं था। इसलिए विज्ञान के कई दस्तावेज़ मूलतः फ़्रांसीसी में दर्ज हैं, उन्हें अंग्रेज़ी से अनुवादित नहीं किया गया। जब कि हिन्दी में विज्ञान के अध्ययन के लिए पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करना पड़ता है जो कि आम बोलचाल की भाषा न होने के कारण कठिन जान पड़ता है। जापान और चीन ने भी काफ़ी समय से विज्ञान के साहित्य की रचना मूलतः अपनी-अपनी भाषाओँ में की है जब कि भारत आज भी इन विषयों के लिए अनुवाद का सहारा लेता है। अनुवादित शब्दों की प्रकृति होती है कठिन होना। इस वजह से हिन्दी में विज्ञान की चर्चा एक हद से आगे नहीं बढ़ पाती।

रोज़गार की वजह और भी अहम है। जब अधिकाँश नौकरियां मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई आदि स्थानों में उपलब्ध हैं तो कोई हिन्दी क्यों सीखे? पटना के किसी नुक्कड़ पर गपशप के लिए, लखनऊ के नव्वाबी चोंचले आत्मसात करने के लिए या भोपाल में गुलछर्रे उड़ाने के लिए? जहाँ तक दिल्ली का सवाल है, नॉएडा-गुरुग्राम के कॉर्पोरेट जगत में पंजाबी लहजे वाली अंग्रेज़ी धड़ल्ले से चलती है। हिन्दी के प्रति दक्षिण, पूर्वी तथा पूर्वोत्तर के राज्यों का आकर्षण तभी बढ़ेगा जब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झाड़खंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि उद्योग के लिए जाने जाएंगे। ‘बीमारू’ राज्य के तमग़े को उखाड़ फेंकने के बाद भी मध्य प्रदेश का आज तक विकास के मुआमले में इतना नाम नहीं हुआ कि देश के बाक़ी प्रान्तों से लोग नौकरी की तलाश में वहाँ भागे-भागे जाएँ। हिन्दी बोलने वाले शेष राज्य तो आर्थिक मापदंड पर खरे ही नहीं उतरते।
परन्तु फिर भी हिन्दी का भविष्य में सर्वव्यापी हो जाना अनिवार्य है। पूछिए क्यों? क्योंकि जहाँ इस भाषा पर ज़ोर देने पर दक्षिण और पूर्व भारत से नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ आती हैं वहीं जब कोई मंत्री या अधिकारी हिन्दी भाषा पर बल न दे तब यह स्वतः मुम्बई फ़िल्म जगत के अनुग्रह से पानी की तरह सहज बहती हुई दक्षिण और पूर्वी भारत तक प्रवाहित हो जाती है। भले ही इस प्रकार सीखी हुई हिन्दी शिक्षित वर्ग को असभ्य लगे, कम से कम इससे भाषा की समझ का विस्तार तो होता ही है। यही समझ आगे चलकर हिन्दी को हर जगह स्वीकार्य बनाएगी।
उत्तर भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी (information technology) के विशेषज्ञों के बेंगलुरु में जा कर बस जाने के कारण वहाँ हिन्दी का प्रसार हो रहा है। हैदराबाद में हिन्दी के प्रति विरोध कम है क्योंकि दक्कनी हिन्दी से मिलती-जुलती है। दक्षिण भारत में बाक़ी रहे दो राज्य — जहाँ हिन्दी फ़िल्में धीमी गति से ही सही पर अपना जादू ज़रूर दिखाएगी। बंगाल में कई दशकों से (वहाँ के ‘महानायक’ उत्तमकुमार की मृत्यु के पश्चात) हिन्दी फ़िल्में बांग्ला फ़िल्मों से अधिक लोकप्रिय हैं। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के छात्र बांग्ला में बातचीत करते-करते बीच-बीच में हिन्दी वाक्य के इस्तेमाल को स्टाइल समझते हैं।
उत्तर भारत के राजनेताओं तथा हिन्दी की पैरवी करने वाले अन्य लोगों को समझना होगा कि भाषा के मुआमले में ज़बरदस्ती नहीं चलती। जो आप चाहते हैं, होगा वही पर इसमें कई दशक और लगेंगे। 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड के राजा के मुद्रक द्वारा छापे गए बाइबल के अंग्रेज़ी रूपांतर के “सरमन ऑन द माउंट” अध्याय के तीसरे पद में लिखा है, “Blessed are the meek: for they shall inherit the earth.” अर्थात जो कमज़ोर हैं उन्हें ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त है — एक दिन यह धरती उन्हीं को विरासत में मिलेगी। इसी प्रकार एक दिन भारत की सबसे कमज़ोर भाषा यदि भारत की राष्ट्रभाषा बन जाए तो कोई हैरानी की बात न होगी। तब तक meek यानी दब्बू बने रहिए; जब-जब हुंकार करेंगे, दक्षिण और पूर्व भारतीय भारत-रूपी धरोहर को आप तक हस्तांतरित होने के समय को और पीछे धकेल देंगे।
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