पिछले महीने, केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री हर्षवर्धन ने राज्यसभा को बताया था कि उन्हें उम्मीद है कि COVID-19 से लड़ने के लिए वैक्सीन 2021 तक उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन उन्होंने सभी से उतावले न होने का आग्रह भी किया। इस रविवार को उन्होंने इस मुद्दे पर बताया कि वैक्सीन के उपलब्ध होने पर जनसमूह में किनके बीच यह सर्वप्रथम वितरित होगा। उन्होंने बताया कि इसका निर्धारण पेशागत ख़तरों और गंभीर बीमारी के जोख़िम और मृत्यु दर पर आधारित होगा। मंत्री ने शुरुआती चरण में सरकार की प्राथमिकताओं का यूँ तो एक अच्छा ख़ाका जनता के समक्ष रखा, लेकिन वैक्सीन-संबंधित कई प्रश्नों के उत्तर फ़िलहाल नहीं मिले हैं। यदि टीके का आविष्कार लगभग तीन महीने में हो जाए, इसके आगे आने वाले हफ़्तों और महीनों में प्राथमिकता सूचि पर गंभीर विचार करने की आवश्यकता होगी। क्या वैक्सीन सर्वप्रथम चिकित्सा वर्कर्स को मिलेगा? यदि हाँ तो इसमें वरीयता किसकी होगी? क्या क्रम डॉक्टर, नर्स, वार्ड परिचारकों और अंत में एम्बुलेंस चालकों का होगा? अगर बीमारों की बात करें तो क्या वयोवृद्ध को यह वैक्सीन पहले मुहय्या कराया जाएगा क्योंकि उन्हें मृत्यु का ख़तरा अधिक है या अल्पायु के युवाओं को यह पहले दिया जाएगा क्योंकि ये अधिक यात्रा करते हैं और इस कारण ज़्यादा ख़तरा उठाते हैं? क्या झुग्गियों और भीड़भाड़ वाले इलाकों में रहने वालों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए? आपेक्षिक ख़तरों का यह आँकलन आसान नहीं है। यह महत्वपूर्ण है कि सरकार विभिन्न कर्मक्षेत्रों के विशेषज्ञों, जैसे महामारी विज्ञानियों, नीतिगत सलाहकारों, अर्थशास्त्रियों, रोगी समूहों, सामाजिक वैज्ञानिकों आदि से इस विषय पर वार्ता आरम्भ करें।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रारंभिक दिशानिर्देश के अनुसार टीकाकरण में प्राथमिकता निर्धारित करने हेतु किसी भी देश की सरकार को चाहिए कि वह सर्वोत्तम उपलब्ध वैज्ञानिक प्रमाण, विशेषज्ञता और रोगियों व सर्वाधिक ख़तरे का सामना करने वालों से परामर्श कर पारदर्शी, जवाबदेह और निष्पक्ष प्रक्रियाओं का उपयोग करे। विश्व स्तर पर एक आम सहमति भी बनती दिख रही है कि आवंटन रणनीतियों को व्यापक विचार-विमर्श द्वारा सूचित किया जाना चाहिए। अमेरिका में रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्रों (सीडीसी) ने नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज, इंजीनियरिंग और मेडिसिन (NASEM) को निर्देश दिया हुआ है कि वह आवंटन के विषय पर एक मसौदा तैयार करे। संस्था ने इसी पर सितंबर के पहले सप्ताह में एक सार्वजनिक सुनवाई का आयोजन किया।
भारत के ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ने पिछले महीने कहा था कि संस्था केवल ऐसे टीका को मंज़ूरी देगी जो कम से कम 50% प्रभावी हो। संकट की भयावहता को देखते हुए यह लापरवाह प्रतीत होता है हालांकि जीवविज्ञान और औषधि के क्षेत्रों में 100% फल कभी नहीं मिलते। अधिकांश मामलों में 90% से अधिक कारगर प्रमाणित होने पर दवा बाज़ार के लिए तैयार मानी जाती है। ऐसे में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री द्वारा जनता को उतावला न होने के आग्रह के विपरीत ड्रग्स कंट्रोलर का उतावला होकर येन तेन प्रकारेण किसी वैक्सीन को मंज़ूरी दे देने की बात स्वीकार्य नहीं है। आशा है सरकारी तंत्र के स्वास्थ्य-संबंधित सभी विभाग आपसी समन्वय से केवल निर्णय और निष्कर्ष तक ही नहीं पहुंचेंगे बल्कि संदेश की सूचना व उसके सटीक प्रसारण पर भी ध्यान देंगे। कोरोनावायरस के संक्रमण के इस भयावह माहौल में ग़लतफ़हमी की वजह से भ्रांति और अव्यवस्था फैल सकती है।
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