पर्यावरण का संरक्षण न ही किसी सम्प्रदाय से जुड़ा है, और न ही किसी दकियानूसी विचारधारा से। इसका संबंध सीधे तौर पर हम इंसानों के जीवन से जुड़ा हुआ है। ऐसे में इसकी परवाह करके हम किसी और पर नहीं, ख़ुद पर ही अहसान करते हैं, और परवाह न करके ख़ुद अपना ही नुक़सान करते हैं।
प्रकृति के विभिन्न अंगों, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की परवाह करने के मुआमले में मैं ख़ुद को केवल एक स्वार्थी इंसान ही मानती हूँ क्योंकि मुझे समझ में आता है कि प्रकृति के ये सभी अंग पर्यावरण के लिए अपरिहार्य हैं। क्योंकि मुझे महसूस होता है कि पर्यावरण का संतुलन के बिगड़ने से हम इंसानों का ही सबसे अधिक नुक़सान होगा। प्रकृति में सभी जीव-जंतुओं आदि की एक फ़ूड-चेन बनी हुई है, जिसमें से एक भी कड़ी हटाने से प्राकृतिक असंतुलन पैदा होगा, जिसका प्रभाव हम इंसानों पर पड़ेगा।
कभी सोचा है कि किसलिए हमारे पूर्वजों ने लगभग हर जीव-जंतु को किसी न किसी देवी या देवता की सवारी बताकर उसे पूज्य बना दिया? पीपल, नीम, बरगद जैसे पेड़ों को और लगभग सभी नदियों को देवी-देवता का दर्जा दे दिया?
प्रकृति में मौजूद प्रत्येक जीव — चाहे पशु-पक्षी हों या पेड़-पौधे — पर्यावरण को कुछ न कुछ देते ही हैं जिसका लाभ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हम इंसानों को ही मिलता है। जबकि केवल इंसान ही है जो प्रकृति से हमेशा कुछ न कुछ लेता ही रहता है। न प्रकृति को कुछ देने की कोई परवाह करता है और न ही प्रकृति से प्राप्त धरोहर की कोई परवाह करता है।
एक नए-नवेले चलन के अनुसार गाय या गोवंश को काटकर हम अपने “खाने के अधिकार” की पैरवी करते हैं। खाने की आज़ादी के नाम पर देश में हमारा दम घुटने लगता है। और जल्द ही हम धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर एक कभी न ख़त्म होने वाली जंग शुरू कर देते हैं।
लेकिन, यदि हमने इन पशुओं को पर्यावरण संतुलन के नज़रिए से देखा होता, प्रकृति में इनके महत्व को समझा होता तो हम इस तरह के राजनीतिक दाँवपेंच में न फँसते बल्कि इन पशुओं के संरक्षण में अपना स्वार्थ समझते। पशु-पक्षियों की दुनिया में कोई दखलंदाज़ी नहीं करते; अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाने की कोशिश ख़ुद भी करते, और दूसरों को भी इस काम के लिए प्रेरित करते।
एक तरफ़ हम इंसान खुद को ईश्वर की सर्वोच्च रचना मानते हैं, जिसके पास सोचने-समझने की शक्ति है लेकिन पर्यावरण के मामले में सोच-विचार की इस शक्ति ने इंसान को केवल ऐसा अदूरदर्शी, स्वार्थी इंसान बनाया जो खुद अपना ही लाभ नहीं समझ रहा।
पिछले कुछ वर्षों से देश में गाय और गोवंश को काटने और खाने को लेकर काफ़ी हो-हल्ला मचा हुआ है। यदि आप सनातन विचारधारा से प्रभावित नहीं हो पाते तो कोई बात नहीं। आपकी विचारधारा निश्चित रूप से आपका अधिकार है। लेकिन हम इंसानों के जीवन में गोवंश के महत्त्व को नकारना कैसा अधिकार? अकारण संघर्ष करने के बजाय हमें विचार तो करना चाहिए कि गाय को माँ दर्जा किसी दकियानूसी विचारधारा के कारण दिया गया, या फिर हमारे जीवन में उसकी उपयोगिता के कारण? ज्ञात हो कि गाय का न केवल दूध उपयोगी होता है, बल्कि उसका गोबर, मूत्र आदि भी अपने औषधीय गुणों के कारण हमारे जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। और तो और, गाय एकमात्र ऐसी प्राणी है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करती है, तो ऑक्सीजन ही छोड़ती भी है। यदि हम मानते हैं कि ऑक्सीजन हमारे जीवन के लिए अनिवार्य है तो ऑक्सीजन देने वाली गाय पूज्य कैसे नहीं हुई? आप पूज्य न भी मानिए तो भी हमारे जीवन के लिए वह आवश्यक तो हुई ही न?
इसी तरह से कुत्तों, बिल्लियों, भैंस, बकरी, आदि की भी पर्यावरण में अपनी उपयोगिता है। ये सारे जानवर पालतू न भी हों तो भी ये घरेलू जानवर हैं क्योंकि इनके घर हमारे घरों के इर्द-गिर्द ही होते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ये जानवर हमारे रोज़मर्रा के जीवन में काम आते हैं। जिस तरह से गाय-भैंस और बकरी दूध देती हैं, उसी तरह बिल्लियाँ चूहों जैसे अनेक बीमारी फैलाने वाले छोटे-छोटे जीवों को खाकर हमपर उपकार करती हैं।
कुछ लोग कहते हैं कुत्ते की हमें क्या ज़रूरत? घरों की रखवाली के लिए तो हमारे पास गार्ड हैं। मैं गार्ड की अहमियत को नकार नहीं रही लेकिन उसी गार्ड का एक प्यारा सा साथी बनता है कुत्ता। आपके गार्ड को रात के एकांत में नींद आ भी जाए, फिर भी ये वफ़ादार पहरेदार ज़रा सी आहट पर भी शोर कर देंगे। आपकी चौकीदारी भी की और आपके गार्ड की मदद भी की।
हाल ही में किसी विद्वान का वक्तव्य सुना कि कुत्ते अनेक जीवों को खा जाते हैं और इंसानों को भी काटते हैं — इसलिए उन्हें मार देना चाहिए! यह कैसा तर्क है? इंसानी क़ानून में तो हत्यारे और बलात्कारी को भी हम ख़ुद सज़ा नहीं देते, फिर जानवर को केवल काटने भर के लिए क्यों मार देना चाहिए? समाधान उसके इलाज में है, न कि उसे मार देने में!
प्रकृति ने फ़ूड-चेन कुछ इस तरह से तैयार की है कि यदि हम इंसान हस्तक्षेप न करें तो प्रकृति के सभी जीवों का संतुलन अपने आप बना रहता है। हम जानते हैं कि बिल्लियाँ चूहों को खाती हैं, और चूहे अन्य हानिकारक कीटों को, लेकिन दुनिया भर की बिल्लियाँ कभी धरती के सारे चूहों को ख़त्म नहीं कर सकीं। लेकिन अगर इस फ़ूड चेन में से बिल्लियों को हटा दें तो चूहों का आतंक प्लेग जैसी महामारी के रूप में भी नज़र आ सकता है।
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि मेंढक बीमारी फैलाने वाले मच्छरों को खा जाते थे और हम डेंगी और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों से बचे रहते थे। लेकिन मेंढकों की संख्या कम होने के कारण बीमारी फैलाने वाले मच्छरों की संख्या बढ़ने लगी जिससे दिल्ली जैसे महानगरों में हर साल डेंगी, चिकनगुनिया की बीमारी बढ़ने लगी। मच्छरों को मारने के लिए हम कितनी भी दवाएँ बनाएँ, कुछ समय बाद वो दवाएँ मच्छरों पर असर करना बंद कर देती हैं। समस्या का स्थायी समाधान केवल प्रकृति में है। हमें ज़रूरत थी, उन्हीं समाधानों को अपनाने की। यदि हमने मेंढकों का संरक्षण किया होता तो आज मच्छरों से बचने की दवाएँ खोजते न फिरते!
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No Way To Fight Dengue, Chikungunya |
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[डेंगी, चिकनगुनिया और मच्छर से जूझने के उपाय पर लेख] |
छिपकली एक ऐसी जीव है जो मेरे जैसे न जाने कितने लोगों को पसंद नहीं। हमारी पसंद-नापसंद अपनी जगह हैं, लेकिन उसके कारण प्रकृति में छिपकली की अहमियत या आवश्यकता कम नहीं हो जाती। मुझे कितनी भी नापसंद हो, गर्मियों और उसके बाद बारिश के मौसम में आने वाले छोटे-छोटे कीट-पतंगों को खाकर छिपकली हमपर उपकार तो करती ही है।
यही नहीं, बहुत से जानवर और पक्षी इतने अधिक संवेदनशील होते हैं कि भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा आने का आभास इन्हें पहले से ही हो जाता है! और ऐसी स्थिति में वे शोर मचा-मचाकर आपको आगाह करते हैं। बस उनके इस संकेत को समझने के लिए आपमें भी पर्याप्त संवेदनशीलता होनी चाहिए।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि प्रकृति ने जिस तरह से हम इंसानों को जीवन दिया है वैसे ही इन सभी जीवों को भी जीवन दिया है। जितना अधिकार इस धरती पर हमारा है, उतना ही इन सभी जीवों का भी है। उन्हें मारने, दुत्कारने या भगाने का अधिकार हमें किसने दिया?
अक्सर लोगों को कुत्ते-बिल्लियों आदि से शिकायत होती है कि ये आसपास गन्दा करते हैं। अब ये समस्या तो प्राकृतिक है। प्रकृति का नियम ही ऐसा है कि जो जीव भोजन करेगा, वह उत्सर्जन भी करेगा ही। ये तो कर नहीं सकते कि चूँकि इन जानवरों के पास आप जैसे टॉयलेट नहीं है इसलिए इन्हें उत्सर्जन करने का अधिकार ही नहीं है। यदि हमें इससे परेशानी होती है तो उसकी सफ़ाई का दायित्व भी हमें ही लेना पड़ेगा। कुछेक को कहते सुना कि हम क्यों करें सफ़ाई? ऐसे लोग ज़रा स्वयं ही सोचें, फिर कौन करेगा? अब ये तो बड़ा ही हास्यास्पद लगेगा कि हम किसी कुत्ते या बिल्ली को झाड़ू पकड़ाकर कहें कि भई, तूने गंदगी की है; अब तू ही साफ़ कर!
लेकिन इस मामले में मैं यहाँ ज़रूर जोड़ना चाहूँगी कि गंदगी की इस समस्या के ज़िम्मेदार भी कहीं न कहीं हम ही हैं।
अधिकतर जानवरों की — विशेष रूप से बिल्लियों की — टॉयलेट सम्बन्धी आदतें बहुत ही साफ़-सुथरी होती हैं। बिल्लियाँ किसी कोने में छुपकर, मिट्टी खोदकर मल-मूत्र त्यागती हैं और फिर बड़ी सफ़ाई से उसे ढँक देती हैं। यानी न केवल सफ़ाई का पूरा ध्यान रखती हैं बल्कि मिट्टी को प्राकृतिक खाद भी देती हैं। कुत्ते भी अक्सर मिट्टी ढूँढ कर उसमें टॉयलेट करते हैं।
लेकिन हम इंसानों ने अपने घरों के आसपास मिट्टी छोड़ी ही नहीं! हर तरफ़ बस सीमेंट ही सीमेंट लगा डाली। सड़कें तारकोल की, उसके बगल में सीमेंट के टाइल से बने फ़ुटपाथ, और उसी में कोई 4-बाइ-4 की मिट्टी की जगह छोड़ दी पेड़ लगाने के लिए। क्या हम नहीं जानते कि सीमेंट हमारे लिए कितनी नुक़सानदेह है? सीमेंटेड ज़मीन बना देने से आसपास लगे पेड़ों को पर्याप्त पानी, आवश्यक पोषक तत्व नहीं मिलते और इसी का नतीजा है कि अक्सर शहरों में ज़रा सी आँधी आने पर पेड़ गिर जाते हैं। यही नहीं, मिट्टी की जगह सीमेंट लगा देने से बारिश का पानी ज़मीन के नीचे उचित मात्रा में नहीं जा पाता और भूमिगत जल का स्तर गिरने लगता है जो पुनः हम इंसानों के लिए ही हानिकारक साबित हो रहा है।
अब देखिये, हमने मिट्टी का महत्व न समझकर जहाँ एक ओर पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाया, वहीँ कुत्ते-बिल्लियों से उनका प्राकृतिक टॉयलेट छीन लिया। और तो और, मिट्टी की जगह सीमेंट लगाकर ग्लोबल वार्मिंग को खुद ही बढ़ावा दिया!
हम अनावश्यक ढंग से पशु-पक्षियों की दुनिया में दखल देते हैं। हम उनके नियंता नहीं! उनका नियंता भी वही है, जो हमारा नियंता है।
यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों के लिए हम एक स्वस्थ पर्यावरण और सुरक्षित धरती छोड़कर जाएँ तो सबसे पहले इस सच को स्वीकारना होगा कि धरती पर मौजूद अनेक जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और वनस्पतियों की ही तरह हम भी प्रकृति का एक हिस्सा हैं। स्वीकारना होगा कि प्रकृति ने हमें सोच-विचार की शक्ति प्रकृति की सभी धरोहरों का संरक्षण करते हुए, एक संतुलित पर्यावरण को बनाए रखने के लिए दी है, न कि उनके दोहन के लिए, या इन्हें नष्ट करने के लिए।
निर्णय हमें ही करना है। क्योंकि भविष्य भी हमारा ही दाँव पर लगा है।