यह लोकप्रचलित तथ्य माना जाता है कि भारतीय महिलाओं को सोना बहुत प्रिय है। सोना यानी सोने के आभूषण। लेकिन यह सत्य नहीं है कि इसी पसंदगी के चलते कॉमनवेल्थ गेम्स में महिला खिलाड़ियों ने लगभग आधे गोल्ड मेडल अपने नाम कर लिए। गोल्डकोस्ट की भूमि पर महिला खिलाड़ियों के गले में पड़ा गोल्ड, सिल्वर मेडल उनके आभूषण प्रेमी होने का प्रतीक नहीं, बल्कि उस संघर्ष का प्रतीक है जिसके भरोसे उन्होंने अपने गले में यह मेडल सजाएं हैं। गले में पहने हुए मेडल उनके चेहरे में आत्मविश्वास की वह आभा जगाती हैं, जिसे देखकर अनगिनत लड़कियां और महिलाएं ऐसे ही आभूषण सजाने के सपने देख सकेंगी। कहा जा सकता है कि मनु, मेरी, मीराबाई, मनिका, पूनम जैसी खिलाड़ी अपने हिस्से का सोना कमाकर लौट आईं हैं।
खेल या खेल जैसी सार्वजनिक गतिविधियां हमारे समाज में लड़कियों के लिए लगभग निषिद्ध हुआ करती थीं। उन्हें खेल के मैदान में खेलने से ज्यादा घर के कामों में दक्ष करने की प्राथमिकता दी जाती रही है। लेकिन समय बदलता है और लड़कियां पढ़ाई के अलावा अन्य क्षेत्रों की तरह खेल को भी अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करती हैं। यही कारण है कि अब खेल में वे अपनी पहचान बनाने लगी है। अगर ऐसा नहीं होता तो इस पुरुषवादी सोच रखने वाले समाज में मनिका जैसी खिलाड़ी चार-चार पदक लाकर ऐसे समाज को शर्मिंदा नहीं कर रही होतीं। ऑस्ट्रेलिया के गोल्डकोस्ट में हुए कॉमनवेल्थ-2018 खेल में भारत को पदक तालिका में तीसरा स्थान मिला है। इसमें महिला खिलाड़ियों का योगदान रेखांकित करने वाला है। भारत ने इस इवेंट में कुल 66 पदक जीते, जिनमें 26 गोल्ड मेडल हैं। अगर आधी आबादी की बात करें तो इनमें से 12 गोल्ड महिलाओं ने और एक गोल्ड मिक्स वर्ग में जीता। इस प्रतियोगिता में इन खिलाड़ियों ने न केवल शानदार तरीके से मेडल जीतें, बल्कि कई रिकार्ड बनाए और तोड़े भी। खेल में ये रिकार्ड बनाने वाली खिलाड़ी कोई सुविधा सम्पन्न घरों की लड़किया नहीं थी, बल्कि वे वाराणसी, झज्जर, भिवानी और मणिपुर जैसे जगहों से आई थीं। जिन्हें यहां तक पहुंचने में घर और समाज दोनों से लड़ना पड़ा होगा। इनकी कामयाबी इनकी संघर्ष की गाथा कहती है।
पहला गोल्ड मेडल जिसने जीता वह थीं मणिपुर की वेटलिफ्टर एस. मीराबाई चानू। 48 किलोग्राम भारवर्ग की वेटलिफ्टिंग प्रतियोगिता में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स का पिछला रिकॉर्ड भी तोड़ दिया। मीराबाई की यह सफलता इस लिहाज से गौर करने योग्य थी कि उन्होंने अपने डर पर काबू पाकर यह स्वर्णिमक सफलता हासिल की थी। दरअसल 2016 में हुए रियो ओलंपिक में मीराबाई ने हिस्सा लिया था। उस समय उनसे बहुत सारी उम्मीदें थी। इस प्रतियोगिता में उन्होंने बहुत ही खराब प्रदर्शन किया था। इसलिए कॉमनवेल्थ में उनका ऐसा प्रदर्शन काबिलेतारीफ रहा। बाइस साल बाद पहली बार नवंबर में वर्ल्ड वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर चानू पहली बार सुर्ख़ियों में आई थीं। इसी तरह मणिपुर, काकचिंग की के. संजीता चानू ने वेटलिफ्टिंग में स्वर्णिम सफलता प्राप्त की।
दंगल फिल्म से घर-घर चर्चित नाम बन चुकी फोगाट बहनों के नक्शेकदम पर चल निकली उनकी चचेरी बहन विनेश फोगाट का जज्बा तो सलाम करने योग्य है। हरियाणा के छोटे से गांव बलाली की विनेश फोगाट को रियो ओलंपिक में जिस तरह चोट लगी कि डॉक्टरों ने उन्हें खेल छोड़ने तक की हिदायत दे दी थी, क्योंकि वे बिस्तर से नहीं उठ सकती थीं। सभी तरह की निराशाओं पर काबू करते हुए विनेश ने 50 किग्रा वर्ग में गोल्ड जीतकर मिशाल कायम कर दी। इसी तरह एक सामान्य परिवार से हरियाण के झज्जर की शूटर मनु भाकर ने सोलह साल की उम्र में ही पहली बार इस इवेंट में खेलकर रिकार्ड बनाकर गोल्ड जीत लिया। वाराणसी की पूनम यादव ने 222 किग्रा वजन उठाकर अपने परिवार के भरोसे को बनाए रखा। पूनम की तीन बहनें हैं, जो वेटलिफ्टर बनना चाहती थीं, लेकिन उनके पिता उन सभी के सपनों को अपनी आर्थिक क्षमता के चलते पूरा नहीं कर सकते थे। पर आज बाईस साल की पूनम ने सोना जीतकर न केवल देश को सम्मान दिलाया, बल्कि अपने परिवार के त्याग का सम्मान किया।
22 साल की मनिका बत्रा ने टेबल टेनिस के अलग-अलग इवेंट में चार पदक जीतकर इतिहास बना डाला। कॉमनवेल्थ खेलों में ऐसा करने वाली वह पहली भारतीय महिला टेबल टेनिस खिलाड़ी बन गई हैं। उनकी झोली में चार अलग-अलग मुकाबलों में दो गोल्ड, एक सिल्वर और एक ब्रॉन्ज मेडल आया। साथ ही सायना नेहवाल कॉमनवेल्थ गेम्स में दो स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बन गई हैं। 14 साल की उम्र में डिप्रेशन से जूझ रहीं सत्रह साल की मेहुली घोष ने शूटिंग में रजत पदक जीता, मेहुली के माता-पिता के इस जीत के अलग ही मायने हैं। जिस देश में स्क्वैश जैसे खेल को ढंग से बोलने-समझने वाले लोग भी न हों, वहां दीपिका पाल्लिकल और जोशना चिनप्पा ने लगातार दूसरी बार इस खेल में पदक जीत लिया। जोशना ब्रिटिश स्क्वैश चैम्पियनशिप जीतने वाली प्रथम भारतीय खिलाड़ी बन चुकी हैं। वे भारत की सबसे कम उम्र की नेशनल चैंपियन भी हैं। स्क्वैश खिलाड़ी दीपिका का यह स्टैंड कि वे नेशनल चैंपियनशिप में नहीं खेलेंगी क्योंकि इस खेल की ईनामी राशि महिलाओं और पुरुषों के लिए एक समान नहीं है, यह तारीफ करने योग्य है। आज कितने क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों से कमतर समझकर मेहनताना कम दिया जाता है।
इसी तरह सोना जीतकर लौंटी हिना सिद्धू ऐसी शूटर खिलाड़ी हैं जिन्होंने अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता करने से इनकार कर दिया था। 2016 में ईरान की राजधानी तेहरान में हुई चैम्पियनशिप से उन्होंने अपना नाम इसलिए वापिस ले लिया था, क्योंकि वहां हिजाब पहनने की अनिवार्यता थी। यह काम उन्होंने किसी क्रांतिकारिता के चलते नहीं, बल्कि इसलिए किया क्योंकि वे यह मानती हैं कि किसी खिलाड़ी के लिए हिजाब पहनना अनिवार्य करना गलत है। ऐसा ही एक कदम वर्षों पहले टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के उनकी खेल पोशाक पहनने के विरुद्ध फतवा जारी करने पर उठाया था। इन खिलाड़ियों का मकसद केवल खेल नहीं है, वे अपने फर्ज को भी जान और समझ रही हैं।
इस खेल इवेंट में जहां मनु भाकर जैसी काफी कम उम्र की खिलाड़ी ने रिकार्ड बनाया, वहीं 35 वर्षीय मणिपुर की मैरीकाम ने स्वर्ण जीतकर एक मिशाल कायम कर दी। तीन बच्चों की मां और एक छोटी जगह से ताल्लुक रखने वाली मैरी के संघर्ष से हम सभी काफी समय से वाकिफ है। उनकी इस जीत के क्या अर्थ हो सकता है, देश की महिलाएं अच्छी तरह समझ रही होंगी। ये महिला खिलाड़ी केवल खेल ही नहीं रही हैं, बल्कि मैदान के बाहर भी अपनी बंदिशें तोड़ और छोड़ रही हैं। देश की सभी खिलाड़ियों की भांति अधिकांश महिला खिलाड़ियों को सुविधाओं का अभाव रहता है, पर इन सबके बीच जो निकलकर आ रहा है वह और कुछ नहीं उनके आत्मविश्वास और हौसलों से तपा सोना ही है। जिसे पाकर हम सब अपने आपको आज गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।
हिन्दुस्थान समाचार/प्रतिभा कुशवाहा
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