कुछ समय पहले एक मराठी दैनिक ने एक ख़बर छापी कि चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी पर एक चलचित्र बनाया जाएगा जो कि रानी पद्मिनी व अलाउद्दीन ख़िलजी के प्रेम पर आधारित होगा।जी हाँ, सही पढ़ा आपने, रानी पद्मिनी व ख़िलजी की प्रेम कहानी! अब ज़ाहिर सी बात है कि कुछ जागे हुए स्वाभिमानी भारतियों को यह घृणित बात बहुत आहत कर गई।ख़ैर, कुछ विरोध के बाद अख़बार ने ग़लती मानते हुए क्षमायाचना कर ली और बात समाप्त हो गई।
पर कल पुन: इनटरनैट पर यह कहानी दोहराई गई।हो सकता है यह सब मायानगरी के गपोड़ियों का प्रलाप ही हो, परन्तु इस प्रकार का कोई प्रयास भी अत्यन्त निम्न कोटि की उश्रृंखलता है जिसका बीज रूप में ही नष्ट किया जाना श्रेयस्कर है।

जो लोग रानी पद्मिनी की जीवनी से परिचित हैं वे जानते हैं कि पद्मिनी की सुन्दरता अद्वितीय थी तथा ख़िलजी अपनी वासना के वश चित्तौड़ पर आक्रमण करने आया था। रानी पद्मिनी के पति रावल रतन सिंह ने जल के प्रतिबिम्ब में पद्मिनी की छाया दिखा कर ख़िलजी से पिंड छुड़ाने का उपक्रम किया। फिर जैसा कि हिन्दू राजाओं की मूर्खता के कारण होता आया है, वही हुआ।
रतन सिंह ख़िलजी को क़िले से नीचे छोड़ने गए। मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत के अनुसार रास्ते में रतन सिंह गिरफ़्तार कर लिए गए। हालांकि ख़िलजी ने उनसे कहा था कि वो पद्मावती को बहन की नज़र से देखते हैं, रानी का प्रतिबिम्ब देखकर ख़िलजी की नीयत दोबारा ख़राब हो गई थी।
फिर चित्तौर के सैनिकों ने अपने राजा को छुडवा तो लिया लेकिन ख़िलजी ने चित्तौरगढ़ के क़िले पर हमला बोल दिया। जब दुर्ग में प्रवेश न कर सके तो ख़िलजी ने उसे चारों दिशाओं से घेर लिया। अन्दर तक खाद्य एवं अन्य ज़रूरी सामान की आपूर्ति समाप्त हो गई तो राणा ने हुक्म दिया कि सभी राजपूत शौर्य का प्रदर्शन करते हुए आर-पार की लड़ाई लड़ें।
यह लड़ाई बराबरी की नहीं थी। पद्मावती समझ गई कि राजपूत सैनिक की छोटी से टुकड़ी लम्बे समय तक ख़िलजी की सेना को रोक नहीं पाएगी। उन्होंने पद्म या कमल-रूपी चिता सजाई और सभी राजपुतानी वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाहित हो गईं।
सभी स्त्रियों की अग्नि-समाधि की सूचना पा कर राजपूत सैनिकों को लगा कि परिवार-रहित जीवन जीने का कोई औचित्य नहीं है। सो वो लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए। जब ख़िलजी आख़िर क़िले में दाख़िल हुआ तो उसे केवल जली हुई हड्डियाँ मिलीं।
अब यह बात तो भारत का बच्चा बच्चा जानता है, फिर क्या कारण है कि मुम्बई के कुछ दलाल महारानी पद्मिनी को ख़िलजी की प्रेमिका के रूप में दर्शाना चाहते हैं? इसके कारणों पर जाने से पहले ज़रा यह परखा जाए कि क्या यह बात ऐतिहासिक रूप से सम्भव है कि पद्मिनी का ख़िलजी से प्रेम रहा हो?
मेवाड़ राजपूत घराने के सबसे वीर व वैभवशाली राजा बप्पा रावल थे जिन्होंने आठवीं शताब्दी में अरबों को पराजित कर ईरान की तरफ़ धकेल दिया था। बाप्पा रावल के वंशजों ने पीढ़ी दर पीढ़ी मध्य पूर्व के आक्रान्ताओं से रक्त रंजित संघर्ष जारी रखा। आक्रान्ताओं से इतने वैमनस्य व घृणा के बीच पली बढ़ी पद्मिनी किसी दुर्दान्त हत्यारे से प्रेम करे यह बात समझ के परे है।
सीधी सच्ची समझ के उस युग में स्टॉकहोम सिन्ड्रोम (जिसमें व्यक्ति अपने सताने वाले को ही प्रेम करने लगता है) बहुत प्रचलित रोग रहा हो इसकी सम्भावना कम ही प्रतीत होती है। सोचने योग्य बात है कि रानी पद्मिनी एक दुर्दान्त विधर्मी हत्यारे से प्रेम क्यों करतीं? क्या ख़िलजी का शारीरिक सौष्ठव बेहद आकर्षक था? क्या ख़िलजी कोई कवि हृदय या संगीत का मर्मज्ञ था कि पद्मिनी उसके प्रति आकृष्ट होती? क्या ख़िलजी बहुत उदार हृदय सम्राट था? यदि नहीं, तो क्या कारण रहा हो सकता है कि रानी पद्मिनी एक अनपढ़, वहशी हत्यारे से प्रेम करने लगतीं? इन दोनों की तो भाषा भी इतनी भिन्न थी कि दुभाषिये के बिना बातचीत भी संभव नहीं हो सकती थी।
आप सही सोच रहे हैं। पद्मिनी के ख़िलजी से प्रेम की बात हास्यास्पद ही होती यदि यह एक गहरे षड्यंत्र का हिस्सा न होती। एक षड़यन्त्र जिसके तहत भारत के इतिहास को इस हद तक विकृत किया जाए कि भारतवासियों का अपने मूल से ही सम्बन्ध विच्छेद हो जाए। एक षड़यन्त्र जिसके तहत भारतीय मानस को इतना भ्रमित किया जाए कि आत्मरक्षा करना भी उसे अपराध बोध से भर दे। एक षड़यन्त्र जिसमें हमारे आत्मसम्मान पर चोट कर-कर के उसे पिलपिला कर दिया जाए।
ऐसा क्यों किया जा रहा है? क्योंकि हमारे देश की सम्पदा व सुख पर कई शक्तियाँ लार टपका रही हैं। हमारी युवा पीढ़ी पर एक सुनियोजित बौद्धिक अतिक्रमण किया जा रहा है जिसके अंतर्गत ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत कर उन्हें दिग्भ्रमित किया जा सके। हमारी संस्कृति व धर्म पर चौतरफ़ा आक्रमण इसलिए हो रहे हैं क्योंकि हमारे नेता नेतृत्व न कर के, मात्र वोट बैन्कों का प्रबन्धन कर रहे हैं।
केवल राजनैतिक नेतृत्व ही नहीं, हमारा धार्मिक व सामाजिक नेतृत्व भी खोखला हो चुका है। आत्मप्रज्ञा का नितान्त अभाव, समर्पण की कमी तथा अदूरदर्शिता की त्रासदी आज का नेतृत्व है।
एक भयानक खेल हम लोगों के साथ खेला जा रहा है जिसमें कि हमें न केवल अपने इतिहास व पूर्वजों के प्रति वरन् अपने धर्म व अवतारों के प्रति भी शंका से भरा जा रहा है। हर व्यक्ति अपने पूर्वजों व धर्म के संबल पर जीवन जीता है, यदि ये खूँटियाँ उससे छीन ली जाएँ तो वह एकाकी आणविक जीवन जीने को अभिशप्त हो जाता है। ऐसे नीरस व असुरक्षित जीवन में ही अपराध व रोग जन्म लेने लगते हैं। समाज को उसके पूर्वजों पर संशय में डालना उसके संस्कारों को क्षीण करता है, जो कि अराजकता की नींव डालने जैसा है।
रानी पद्मिनी को ख़िलजी की प्रेमिका बताकर वामपंथी व जेहादी तत्व वैचारिक स्वतन्त्रता की आड़ में भारतीय मानस के साथ एक भद्दा उपहास तो कर ही रहे हैं, साथ ही यह एक प्रयास है हमारी मातृशक्ति का व्यभिचारीकरण कर भारत के लोगों को उकसाने का। वामपंथियों के दोनों हाथों में लड्डू हैं!
यदि भारतवासी इस प्रकरण का विरोध नहीं करते हैं तो यह सिद्ध हो जाएगा कि हमारी आत्मा मर चुकी है। यदि विरोध करते हैं तो कितना समय नष्ट होगा, कितने लोगों को कष्ट उठाने होंगे, तथा व्यर्थ की अराजकता होगी जिसे ये वामपंथी, दक्षिणपंथियों की दक़ियानूसी सोच बता कर राष्ट्र प्रेमियों को बदनाम करेंगे।
ऐसे में राष्ट्रभक्तों द्वारा महारानी पद्मिनी के इस भयानक अपमान का विरोध कोई सरल काम नहीं होगा। यद्यपि ऐसे घटिया प्रयास को निर्विरोध भी छोड़ा तो नहीं जा सकता।
जहाँ तक मूल विषय की बात है, महारानी पद्मिनी को ख़िलजी के प्रति आसक्त बताना एक महापाप है जिसके लिए कोई भी दण्ड पर्याप्त नहीं है। यह एक ऐतिहासिक व सम्मानित चरित्र की मानहानि भी है। यह ऐसा ही है जैसे कि एक बेटे को यह कहा जाए कि उसकी माँ के उसके परिवार के दुश्मन के साथ वासना का सम्बन्ध था।
आधुनिक युग में हो सकता है सतीत्व कोई मूल्यवान बात न हो, पर क्या हमारी माँओं बहनों का शील भी इस प्रकार बाज़ारों में बेचा जाएगा?
मध्य पूर्व के बर्बर दरिन्दों से लड़ते हुए मेवाड़ के अनगिनत सपूत वीरगति को प्राप्त हुए हैं, उन्हीं वीर राजपूतों की पूर्वज रानी के एक उस ज़माने में म्लेच्छ कहे जाने वाले के साथ प्रेम का सफ़ेद झूठ प्रचारित करना ऐसा है जैसे उन वीरों की चिताओं पर अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकना। मेवाड़ के राजपूतों ने अपनी माँओं व बहनों के शील की रक्षा का मूल्य अपना मस्तक कटा कर चुकाया था।
मुम्बई के कुछ ‘प्रगतिशील’ फ़िल्म उद्योगियों से शील का मूल्य समझ पाने की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती पर क्या वे चार पैसे कमाने के लिए अपनी माँ के जीवन पर भी ऐसा चलचित्र बनाएँगे, यह जानना आवश्यक हो जाता है।

महारानी पद्मिनी का जौहर (जीवित अग्नि में प्रवेश) एक युग प्रवर्तक घटना थी जिसने समूचे भारतवर्ष में जनमानस को झकझोर कर रख दिया था। एक युवा वीरांगना ने एक वहशी दरिन्दे की वासना का भोज बन कुछ वर्ष जीने के स्थान पर इस लोक से कूच करना उचित समझा क्योंकि ऐसी घृणित दासता का जीवन उसे नहीं चाहिए था।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि साधारण मनुष्य सब प्रकार से महान लोगों का ही अनुसरण करते हैं। यदि पद्मिनी ने ख़िलजी की काम दासता स्वीकार कर ली होती तो समूचा भारतवर्ष हतोत्साहित होकर दासता को अभिशप्त हो जाता। पद्मिनी का जौहर, हमारे नवें गुरु श्री गुरु तेग़ बहादुर जी महाराज के बलिदान के समकक्ष महत्व वाली घटना है। गुरु तेग़ बहादुर जी महाराज के बलिदान के फलस्वरूप ही उत्तर भारत में हिन्दू धर्म बच पाया था।
उस सती स्त्री के महान बलिदान को यदि मुम्बई का एक भांड अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर व्यभिचार में परिवर्तित करना चाहता है तथा हम उसके साक्षी रह कर ऐसा होने देते हैं तो हमारी दासता भी घटित हो गई है। जो समाज अपनी स्त्रियों के शील की रक्षा नहीं कर सकता उसे मिट ही जाना चाहिए। मनुष्य रूप में कीट भृंग का सा जीवन जीने का प्रयोजन क्या हो सकता है?
सदियों पहले माता द्रौपदी का चीरहरण इस समाज ने किया था, जिसके फलस्वरूप महाभारत के भयानक युद्ध में मानवता विलुप्त हो जाती यदि योगेश्वर श्रीकृष्ण परीक्षित को जीवनदान नहीं देते। माता पद्मिनी के इस चीरहरण का परिणाम भी महाविनाश ही होगा। अंतर यह है कि इस बार कोई श्रीकृष्ण मानवता को बचाने के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
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