शीना बोरा, सुनंदा पुष्कर, जेसिका लाल, आरुषि तलवार। इन सब मामलों में क्या समानता है? यक़ीनन सब अपराध कथाएं थीं। शराब, शबाब, पैसा, धोखा, ड्रग्स का घालमेल भी सभी मामलों में था। लेकिन इस सबसे कहीं अधिक गहरा कुछ था जो इस सब मामलों को मीडिया के लिए गर्मागरम मसाला बनाने का माद्दा रखता था और वह था इन सभी हत्याओं का ऊपरी मध्यम वर्ग से जुड़ा होना। ऊपरी मध्यम वर्ग मतलब वह वर्ग जिसमें शामिल होने के लिए निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग लगातार गांवों से शहरों की ओर दौड़ रहा है और घोंसले जैसे हवा में टंगे घरों (पढ़ें फ्लैट्स) में रहते हुए दिन भर की दौड़-भाग कर कर रहा है। यही वह वर्ग है जो मीडिया को टीआरपी देता है और यही वह वर्ग है जो पूरे देश की जनसँख्या का बमुश्किल 5% है।
लेकिन क्या यह वही वर्ग है जो केवल आरुषि तलवार, शीना वोरा, सुनंदा पुष्कर इत्यादि की हत्याओं की कहानियाँ और उनके परिवार की जटिलताओं को सुनकर ख़ुश है? तो क्या मीडिया कोई और विकल्प देने को तैयार है? इस से पहले एक पड़ताल इस बात की भी कर लें कि क्या मीडिया तथाकथित रूप से पेज थ्री अपराधों की भी सही रिपोर्टिंग कर पाता है या नहीं?
सेलिब्रेटी कथा
सलमान ख़ान को सज़ा हुई। सोशल मीडिया पर दो तरह के मत वाले लोग आ गए। कुछ लोग थे जो चाहते थे कि सलमान ख़ान इसलिए छूट जाएँ क्योंकि उनके ऊपर इंडस्ट्री का खरबों रुपए लगे हैं और वे एक सामाजिक संस्था चलातें हैं। तो दूसरी तरफ़ कुछ लोग चाहते थे कि उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा मिले क्योंकि वे एक सेलिब्रेटी हैं और उन्हें सजा मिलने से बाक़ियों के लिए उदाहरण बनेगा। मीडिया के अलग अलग चैनल भी इन दोनों में से कोई एक पक्ष लेकर उसी तरह की रिपोर्टिंग करने में लगे हुए थे। इस सब के बीच किसी के पास उन दो लोगों के बारे में बात करने की फ़ुर्सत नहीं थी जिन्होंने इस पूरे मामले में सच को सामने लाने के लिए ख़ुद को दांव पर लगा दिया। पहला व्यक्ति था सलमान का बॉडीगार्ड रविन्द्र पाटिल जो सलमान के ख़िलाफ़ अपनी गवाही पर क़ायम रहा और अंततः एक सरकारी अस्पताल में दवाइयों के अभाव में मर गया। दूसरा व्यक्ति था मुंबई पुलिस का कांस्टेबल डीएम पाटेकर जिसकी मेहनत के कारण यह केस लगातार आगे बढ़ता रहा क्योंकि इस केस से सम्बंधित काग़ज़ात को ढूँढने, व्यवस्थित करने और अन्य ज़रूरी खोजबीन करने की ज़िम्मेदारी इस कांस्टेबल पर थी जो किसी भी तरह के दबाव के आगे झुका नहीं। यह केवल एक उदाहरण है इस तरह के रिपोर्टिंग लूपहोल आपको हर तरफ़ मिल जायेंगे।
यानी यह लगभग साफ़ है कि मीडिया पेज थ्री अपराध कथाओं को लेकर अति-उत्साही है और इन अपराधों की सही रिपोर्टिंग करने में भी नाकाम है। अब सवाल यह है कि अगर मीडिया इस तरह के अपराधों पर वक्त और संसाधनों का निवेश कर रहा है तो ऐसा क्या है जिसे वह छोड़ रहा है?
एक उदाहरण। २४ जनवरी २०१५,अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दिल्ली में आये भी नहीं थे। मीडिया और सोशल मीडिया दोनों उनके होटल के कमरे से लेकर उनकी गाड़ी के दायें टायर की फोटो और मिशेल ओबामा के द्वारा पहनी जाने वाली संभावित पोशाक तक दिखाने में व्यस्त थे। इसी समय लुटियंस दिल्ली से ३ कि०मी० दूर एक ३ साल की बच्ची घर से गायब हो जाती है। लगभग ३ दिन बाद वह बच्ची दिल्ली के एक मशहूर मकबरे की एक खड्ड में मिलती है। ज़िन्दा, मगर ख़ून से लथपथ। होठों, चेहरे और शरीर के बाक़ी हिस्सों पर दांत से काटने के गहरे निशानों से बहता हुआ खून। शरीर का निचला हिस्सा क्षत-विक्षत। सरकारी अस्पताल में बच्ची का इलाज चलता है। कुछ खाने और पेशाब करने में भी बच्ची असमर्थ है मगर मीडिया के लिए यह मुद्दा नहीं है क्योंकि इसमें ओबामा जैसा मसाला नहीं। एक तरफ ओबामा हैं दूसरी तरफ दिहाड़ी मजदूर की बेटी। दिहाड़ी मजदूर जो सरकार द्वारा दिए गए रैन बसेरे में रहता है। किसे चुनेंगे? यक़ीनन मीडिया ने ओबामा को चुना और तथाकथित वैकल्पिक मीडिया में कोई हैशटैग इस बच्ची के लिए उपलब्ध नहीं था।
आखिर ऐसा क्या है जो मीडिया को इस तरह का व्यवहार करने पर मजबूर करता है। इसके पीछे मोटे मोटे तौर पर दो कारण दिखाई देते हैं। पहला आर्थिक, दूसरा मनोवैज्ञानिक।
अर्थ-नीति
इसकी शुरुआत उदारीकरण के दौर से शुरू हुई जब मीडिया सरकारी पंजों से छूट गया। अलग-अलग चैनल खुलने लगे। इसके साथ ही इन्टरनेट क्रांति के आने से लगभग हर व्यक्ति को अपनी बात कहने के लिए मंच मिल गया। मीडिया के विकेंद्रीकरण की इस प्रक्रिया के साथ-साथ केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया भी तेज़ हो गई और यह बड़े बड़े निगमों के द्वारा मीडिया में निवेश के रूप में हुई। एक तरफ बड़े बड़े व्यावसायिक घराने मीडिया में बड़े पैमाने पर निवेश करके इसके केन्द्रीयकरण को अंजाम देने लगे तो कहीं-कहीं बड़े व्यवसायिक घरानों के बीच लिखित व अलिखित समझौतों ने इसमें अहम भूमिका निभाई।
व्यावसायिक घराने आये तो सम्पादक के हाथ में ख़बरों से पहले लाभ-हानि खाता आने लगा। यानी कम से कम ख़र्च में ज़्यादा से ज़्यादा टीआरपी लेकर आना ही अब पत्रकारिता का कौशल बन गया। ऐसे में सुदूर प्रदेशों में जाकर मुद्दों की पड़ताल करने का बड़ा ख़र्च कौन झेले? तो २४ घंटे खबर चलाने का ज़िम्मा पेज ३ हस्तियों की ख़बर से पूरा किया गया। ऐश्वर्या राय के बढ़ते पेट की ख़बर रखना आसान था; किसानो की घटती जोत को रिपोर्ट करने के मुक़ाबले। और वही किया गया। इन्द्राणी मुखर्जी के परिवार की जानकारी देना यक़ीनन आसान है किसानों के आन्दोलन की ख़बर प्रसारित करने के मुक़ाबले। शेयर बाजार के ‘धड़ाम’ से गिरने की ख़बर देना आसान है; इसके पीछे के कारणों और आगे की संभावनाओं पर शोध करने के मुक़ाबले।
लंगोटिया पत्रकारिता
इसके अलावा कभी सत्ता से टकराने का नाम मीडिया होने की हुंकार भरने वाले पत्रकारों के अवसान के बाद प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेंस में उनके साथ सेल्फ़ी लेने की पत्रकारों की होड़ भी मीडिया के बदलते चरित्र के बारे में बहुत कुछ कहती है। अब सत्ता से नज़दीकी ही असली पत्रकारिता है! छोटे स्तर पर यह लिफ़ाफ़े की पत्रकारिता कहलाती है तो बड़े स्तर पर राज्यसभा की सीट लक्ष्य बन जाती है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस आर्थिकी का दूसरा पक्ष सरकार के साथ इन मीडिया घरानों की निकटता के रूप में देखा जा सकता है। रुपोर्ट मर्डोक मीडिया व्यापार में सत्ता के ख़िलाफ़ ख़बर चलाकर सत्ता विरोधी होने का टैग अपने माथे पर नहीं लगाना चाहेंगे जबकि उनके बाक़ी धंधे सरकारी नीतियों पर निर्भर हों। इसके आलावा सरकार से मिलने वाले विज्ञापन के पैसे का भी बड़ा रोल इसमें देखा जा सकता है। जो अरविन्द केजरीवाल कभी कार में सीट बेल्ट न लगाने के कारण प्राइम टाइम बहस का मुद्दा बन जाते थे वे अब लोकपाल को भूलकर, गया मंदिर से ‘आम आदमियों’ को बाहर निकालकर, लालू प्रसाद यादव के पक्ष में प्रचार करके भी विवादों में नहीं आते क्योंकि उन्होंने मीडिया में विज्ञापन के लिए रु० ५२६ करोड़ का बजट अलग से रख छोड़ा है।
महत्त्वाकांक्षा
मनोवैज्ञानिक पक्ष को देखें तो वे सभी केस जिनके बारे में अक्सर मीडिया रिपोर्ट करता है वे ऊपरी मध्यम वर्ग के हैं जैसा कि ऊपर कहा गया। २४ घंटे अनवरत ख़बरों के प्रवाह को कायम रखने वाले पत्रकार अब जनता के लिए जवाबदेही नहीं बल्कि करियर को ज्यादा महत्ता देते हुए लगते हैं और ऐसा आप किसी भी चैनल के ऑफ़िस में घुसकर देख, कुछ ही मिनटों में पहचान सकते हैं। करियर की उड़ान का दूसरा नाम मध्यम वर्ग से उच्च मध्यम वर्ग में जल्दी से जल्दी शामिल होने की उत्सुकता भी है। साधारण मनोवैज्ञानिक सिद्धांत कहता है कि आप जो बनना चाहते हैं उसी के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी लेना और देना पसंद करते हैं। तो क्या पत्रकारों की व्यक्तिगत इच्छाएं और मीडिया घराने की कम ख़र्च में ज़्यादा बड़ी ख़बर लाने कि जुगत एक साथ काम कर रही है? यक़ीनन।
आत्मकथा और आत्मव्यथा
कभी-कभी किसी कवरेज के पीछे आत्ममंथन के विकार का सबब भी होता है। मीडिया बड़े चटखारे लेकर यह बयान करती है कि किसी रईस घराने की महिला के कितने मर्दों के साथ रिश्ते थे या वो कितनों की पत्नी रह चुकी हैं। यहाँ “उच्च मध्यम वर्ग” की जगह “रईस” कहना ज़्यादा उचित है। मध्यम वर्ग में भी एकाध क़िस्से हो सकते हैं पर मोटे तौर पर ऐसी कहानियाँ मध्यम वर्ग के कल्चर से जुड़ती ही नहीं हैं — या फिर जुड़ती हैं तो ऐसे चंद परिवारों से जिन्हें आर्थिक सीढियाँ चढ़ने की बहुत जल्दी है जैसे कि नार्थ-ईस्ट के एक क़स्बे से आई और आख़िर एक चैनल की मालकिन बनी महत्त्वाकांक्षी इन्द्राणी को थी।
वयस्क पत्रकार — तथा ऐसे लोग जो मीडिया इंडस्ट्री को नज़दीक से देख चुके हैं — कहते हैं कि पत्रकार कहीं न कहीं व्यक्तिगत तौर पर इन्द्राणी मुखर्जी की तरह दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं, केवल करियर के मुआमले में नहीं बल्कि इंसानी रिश्तों के मुआमले में भी। इस वजह से उनको इस कहानी में अपनी झलक दिखती है। इससे मन में जो ग्लानि पैदा होती है उस से मुक्ति पाने के लिए वो ऐसी कहानियों के अन्दर तक जाने की कोशिश करते हैं ताकि यह समझ पाएँ कि आख़िर किसी के जीवन में ऐसा होता क्यों है।
लम्बे समय तक भारत में अंग्रेज़ी भाषा की मासिक पत्रिका का बाज़ार जिस ग्रुप के क़ब्ज़े में था — उसके अन्दर की कहानी इस सन्दर्भ में याद आती है। उस पत्रिका के उप-सम्पादक जब भी दफ़्तर से अपने घर लौटते थे, घर पर अपनी पत्नी को पत्रिका के सम्पादक के साथ पाते थे! आख़िर उस उप-संपादक ने नौकरी छोड़ दी। कुछ साल बाद जिस अख़बार के वो स्तंभकार बने वहाँ का क़िस्सा भी कुछ वैसा ही था। इस अख़बार के सम्पादक खुले-आम पार्टियों में दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अध्यापक की पत्नी के साथ अपनी शामें रंगीन करते थे। अध्यापक उस अखबार के स्तंभकार थे और उनकी पत्नी भी अध्यापन के पेशे में थी। यह मुआमला उनका निजी हो सकता है पर बात उससे आगे बढ़ गई। जब अध्यापक-अध्यापिका का तलाक़ हुआ तो अख़बार के सम्पादक ने न केवल उस महिला से शादी कर ली बल्कि उसे अपने यहाँ फॉरेन कोरस्पोंडेंट बना दिया। पत्रकारिता में उस महिला की योग्यता क्या साबित थी? बिल्कुल नहीं। इससे पहले कभी उसने पत्रकारिता की ही नहीं थी।
इस पृष्ठभूमि से पर्दा हटने के बाद पत्रकारों को यह मानना पड़ेगा कि इन ‘रसीले’ क़िस्सों की ज़रूरत उनको है, हमें नहीं।
मोमबत्ती-छाप पत्रकारिता
ध्यान रहे कि जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, नितीश कटारा आदि के क़ातिल और शिकार दोनों उच्च वर्ग के थे; आरुषि तलवार और सुनंदा पुष्कर काण्ड में भी मुमकिन है ऐसा ही हुआ हो। इस वर्ग से जुड़ने का पत्रकारों को एक और लाभ होता है। जब किसी अपराध का शिकार भी उसी वर्ग से हो तो तुरंत उसे इन्साफ़ दिलाने के लिए सक्रिय प्रतिभागी (activists) सड़कों पर मोमबत्ती-जुलूस निकाल लेते हैं। हफ़्ते-दस दिन तक उनके साथ साथ माइक हाथ में लिए टीवी के पत्रकार भी परदे पर लगातार बने रहते हैं। इस कारण उन्हें जो सहानुभूति और लोकप्रियता मिलती है उसका भी अलग महत्त्व है।
यह माना कि इन मुआमलों में यह सन्देश भी था कि ताक़तवर लोग किस तरह क़ानून से खेलते हैं और अपराध करने के बाद अदालतों के शिकंजे से कभी-कभार छूट भी जाते हैं, पर ये कहानियाँ अधिक मार्मिक तब बनती हैं जब शिकार ग़रीब या कमज़ोर तबक़े के हों। न जाने क्यों रईसी की दहशत का जब आम आदमी शिकार होता है तब पत्रकारिता में इतना जुझारूपान नहीं दिखता।
हालांकि इन मुआमलों में अभियुक्त अन्ततोगत्त्वा दोषी पाए गए, ऐसे भी मुआमले सामने आए हैं जहाँ जिस व्यक्ति को प्रथमदृष्टया आरोपित बताया गया था वह अदालत में निर्दोष साबित हुआ! यहाँ तक हुआ है कि एक बच्ची को उसकी माँ ने बहकाया कि वो किसी पर बलात्कार का आरोप लगाए जब कि बच्ची ने बाद में बताया कि आरोपित व्यक्ति ने उसे प्रहार तक नहीं किया था! ऐसा विकसित देशों में भी होता है। पर वहाँ ग़लत बयानी के लिए पत्रकार मुआफ़ी भी मांगते हैं। यहाँ ऐसी स्थिति में पत्रकार बाइज़्ज़त बरी व्यक्ति से न तो मुआफ़ी मांगते हैं और न ही उसका सम्मान वापस लौटाने की कोशिश करते हैं। आख़िर क्षमायाचना से टीआरपी को भारी नुक़सान पहुँच सकता है!
फ़िलहाल कोई समाधान नहीं
एक हैरानी की बात और है कि यह सब करने के पीछे जो तर्क दिया जाता है वह यह है कि लोग यही देखना चाहते हैं। सवाल यह है कि विकल्प है कहाँ? गिनती के एंकर्स बचे हैं जिनकी बहस बुद्धू बक्से के १४ ख़ानों में मचने वाले पैनलिस्ट के शोर से इतर कुछ सार्थक मुहैया कराती है और उनके कार्यक्रम का हिट होना जनता की पसंद दर्शाता है। यानी सीरियस पत्रकारिता के लिए बाज़ार तो है मगर इसमें निवेश कौन करे?
जिस संवेदनहीनता के साथ कोई रिपोर्टर किसी मृतक के स्वजनों से यह पूछता है कि “आपको कैसा लग रहा है?” काश मरी हुई पत्रकारिता के जीवनकाल में उनका हमसाया रहे पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों से भी कोई यह पूछे! आपको कैसा लग रहा है?
बहुत सही आकलन