केंद्र सरकार ढांचागत विकास के ज़रिए अर्थव्यस्था को पटरी पर लाने के लिए तमाम घोषणाएं कर रही है। उनमें से ही एक है 100 स्मार्ट सिटी बनाने की घोषणा। इस योजना के तहत दो करोड़ नये घरों का निर्माण किया जाएगा। यह कहा जा रहा है कि अगले दस वर्षों में सभी को घर देने का लक्ष्य पूरा करना है। इस योजना को लागू करने के पीछे सरकार मी मंशा ठीक हो सकती है, पर दृष्टिकोण ठीक नहीं है। स्मार्ट सिटी के बजाय यदि सरकार पहले सुव्यविस्थत गांवों की योजना लाती तो शायद देश का ज्यादा भला होता।
देश की लगभग 40 फीसदी आबादी या तो शहरों में जीवनयापन कर रही है या फिर अपनी जीविका के लिए शहरों पर आश्रित है, लेकिन 60 फीसदी आबादी तो अभी भी गांवों में ही रह रही है। तो क्या सरकार की नज़र में शहरी आवश्यकता ज़्यादा महत्व रखती है? यह तर्क दिया जा रहा है कि शहरी आबादी में से अधिकतर लोगों के पास सामान्य सुविधाएं भी नहीं है। लोग झुग्गी-झोपड़ी में जिंदगी गुज़ार रहे हैं। पर यही हाल तो गांवों का भी है, बल्कि गांवों की हालत तो और ख़राब है। न पीने का पानी है, न समुचित शौचालय व्यवस्था, न तो बच्चों के पढ़ने के लिए पर्याप्त स्कूल-कॉलेज हैं और न चिकित्सा के लिए आवश्यक अस्पताल। गांवों की सुध कौन लेगा?
कहने को प्रधानमंत्री ने सभी सांसदों को एक-एक आदर्श ग्राम विकसित करने का लक्ष्य दिया है, पर उसके लिए संसाधन कहां है, सांसद निधि कहां-कहां काम आएगी? लिहाज़ा एक साल की घोषणा के बाद भी आर्दश ग्राम की संख्या गिनती की है।
यह कहना सही नहीं है कि दो करोड़ नये घर बना देने से सभी को छत देने का लक्ष्य पूरा हो जाएगा। हमारी जनसंख्या जितनी तेज़ी से बढ़ रही है उससे यह तय है कि दो करोड़ नये आवास का निर्माण भी कोई स्थाई हल नहीं होगा। हमारे देश में क़रीब 500 शहर हैं और शहरों का विस्तार होता ही जा रहा है। हर साल हिन्दुस्तान किसी यूरोपीय देश के बराबर एक नये देश को जन्म दे देता है। यदि शहरों से भीड़ कम करनी है तो गांवों का ही विकास करना होगा। एक सुव्यविस्थत ग्रामीण व्यवस्था ही भारत की कई समस्याओं को आत्मसात कर लेगी।

गाँवों में सुविधाएं होंगी तो शहरों की ओर पलायन नहीं होगा। इतनी बड़ी संख्या में झुग्गी-झोपडि़यों का निर्माण नहीं होगा। यदि गांवों में स्थाई रोज़गार मिलेंगे तो शहरों में रोज़गार के लिए कौन जाएगा? भारत के 6 लाख गांव यदि सुव्यविस्थत हो जाएं तो आधे शहर ऐसे ही ख़ाली हो जाएंगे।
एक अनुमान के अनुसार भारत में इस समय आठ करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके सिर पर छत नहीं है। यानी उनका अपना मकान तक नहीं है। कल्पना की जा सकती है कि 6 लाख गांवों में यदि 100-100 लोग भी शहर छोड कर गांव आ जाएं और उन्हें वहां रोटी, कपड़ा और एक अदद मकान मिल जाए तो पूरे देश से ही आवास की समस्या समाप्त हो जाए।
पर अफ़सोस, नीति निर्धारकों को यह आसान रास्ता दिखाई नहीं देता। अंधांधुध शहरीकरण के कारण कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल सिंकुड़ता जा रहा है। यही हाल रहा तो देश के सामने खाद्यान्न का संकट आ खड़ा होगा। आज भी अधिकतर गांवों की आबादी 500 से 1,000 लोगों की ही है। अर्थात् गांवों के विस्तार की पूरी गुजांइश है, वो भी बिना अतिरिक्त जमीन के उपयोग के।
स्मार्ट सिटी के लिए राज्यों को ही भूमि की व्यवस्था करनी है। राज्य ज़मीनों की व्यवस्था किस तरह करेंगे और कितनी जल्दी करेंगे? फिर आर्थिक संसाधनों की भी भारी किल्लत आएगी। रु 1,00,000 करोड़ के निवेश से शहरों में कंक्रीट के जंगल खड़े करने की योजना में से आधे पैसे गांव में लगा दिए जाएँ तो गांवों का कायाकल्प हो जाएगा। शहरों में तो पहले से ही लाखों मकान बन कर खड़े हैं और उनका कोई ख़रीददार नहीं है। लेकिन गांवों में अभी भी कम लागत के मकान बनाए जा सकते हैं। बिजली और पानी की आसानी से व्यवस्था की जा सकती है। सौर ऊर्जा और जलसंचयन की परियोजनाएं ग्रामीण क्षेत्र में शतप्रतिशत सफल हो सकती है।
लेखक स्वराज पत्रिका के सम्पादक हैं; यहाँ व्यक्त किये गए विचार उनके अपने हैं
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