राजनीति विज्ञान सभी विज्ञानों का पितामह है। यह राजनीतिज्ञों ने सिद्ध कर दिया है। हर वैज्ञानिक सिद्धांत का अपने अनुसार प्रतिपादन और अपने अनुसार ही उनका अनुसरण या इस्तेमाल राजनीतिज्ञ खूब करते रहे हैं। इस पर ताज़ातरीन प्रयोग नीतीश कुमार ने किया है।
राजनैतिक शब्दावली के रूप में प्रधानमंत्री द्वारा इस्तेमाल शब्द “डीएनए” को फ़ॉरेंसिक विज्ञान का विषय बनाकर 50 लाख लोगों के नाखून और बाल कटवा कर दिल्ली भेजने का उनका सद्क्रम क़ाबिले-तारीफ़ है। यह विज्ञान को बिना ज्ञान का विषय बनाकर बिहार की जनता को बरगलाने की चुनावी चेष्टा है।
वैसे नीतीश जी पहले भी विज्ञान का राजनैतिक प्रयोग बखूबी करते रहे हैं। वे उत्प्लावन बल के सिद्धांत को उलटा लटकाकर अपने प्रतिद्वंदियों को ठिकाने लगाते रहे हैं। उत्प्लावन बल का सिद्धांत कहता है कि जब कोई वस्तु पानी के नीचे जाती है तो वह एक बार ऊपर वापस ज़रूर आती है। लेकिन नीतीश की पार्टी में जो भी ऊपर आया उसको नीतीश ने रिवर्स उत्प्लावन बल का सिद्धांत लगाकर नीचे पहुँचा दिया। जॉर्ज फ़र्नांडिस, शिवानंद तिवारी, प्रभुनाथ सिंह और जितन मांझी सब नीतीश द्वारा ईजाद रिवर्स उत्प्लावन सिद्धांत के ही शिकार हैं।
चिकित्सा विज्ञान में अंगों का प्रत्यापर्ण जितना कठिन और दुरूह है नीतीश के लिए शब्दों और भावों का प्रत्यारोपण करना उतना ही सुलभ है। पहले लालू पर भुजंग (साँप) होने का उपमा चिपकाया (रहीम के दोहे की उद्धृति के सहारे), फिर उसे भाजपा पर प्रत्यारोपित कर दिया। नीतीश काबिल इंजीनियर रहे हैं, इसलिए राजनैतिक पुर्ज़ों को तोड़ते-जोड़ते रहते हैं। जनता के साथ भी यही प्रयोग करते हैं। पहले बिहार में जंगल राज के जनक लालू प्रसाद यादव को लेकर जनता को डराया फिर सुशासन बाबू कहलाया।

लालू को दिमागी रूप से दिवालिया और नॉनसेंस बात करने वाला बताया, सत्ता के लिए मछली की तरह तड़पने वाला लालची नेता करार दिया और अब लालू को फिर गले लगाया! लालू ने नीतीश को झूठा बताया, पेट में दांत रखने वाला राजनेता बताया, रणछोड़ घोषित किया और कुछ दिन पहले तक गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नेता बताते रहे और अब सत्ता के लिए खुद नीतीश का सारथी बन गए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का “डीएनए” वाला वक्तव्य बिहार की अस्मिता पर चोट है, लेकिन एक-दूसरे को झूठे, मक्कार, धोखेबाज़, रणछोड़ गिरगिट आदि कहने वाले बिहार की अस्मिता के सूचक बन गए। बिहार की अस्मिता की ऐसी परिभाषा शायद ही किसी ने गढ़ी होगी। जब दिल (डी) में खोट हो, नीयत (एन) खराब हो और अॅक्शन (ए) [यानी पहल] जनता के हित में न हो तो राजनैतिक शब्दावली में इसे डीएनए ख़राब ही कहेंगे। नीतीश यह सिद्ध करें कि उनके दिल में खोट नहीं है। जनता को अपनी जायदाद समझ कर सत्ता को स्वकेंद्रित बनाने वाले नीतीश के दिल में अगर खोट नहीं होती तो वह हर उस संगठन या शख़्स को ऐन वक़्त पर धक्का नहीं देते, जो इन्हें बिहार का नेता और मुख्यमंत्री के पद तक पहुँचाने के संघर्ष में साथी रहे।
जिस लालू को लेकर आज नीतीश कुमार बिहार में फिर से चुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं उसी लालू की तब की सरकार के ख़िलाफ़ 1994 में नीतीश ने षडयंत्र कर जनता दल को विभाजित करा दिया था।
बिहारी गौरव का दम भरने वाले नीतीश ने तब फरवरी 1994 में कुर्मी चेतना रैली कर जातिवाद की राजनीति की बिसात रख दी थी। जब लालू प्रसाद यादव ने सत्ता में नीतीश की भागीदारी अस्वीकार कर दी तो वही हुआ जिसके लिए नीतीश जाने जाते है।
तुरंत लालू और मंडलवाद को अलविदा कर, नीतीश सत्ता के दूसरे रथ पर सवार हो लिए। ये रथ था भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का। रेलमंत्री, परिवहन मंत्री और कृषि मंत्री के रूप में सत्ता सुख भोगने के बाद सीधे बिहार और फिर मुख्यमंत्री! नीतीश ने सीढ़ी के रूप में सबका उपयोग कर लिया। कांग्रेस, जनता दल, भाजपा और वामपंथी — सभी के साथ गलबहिया की और सभी केा समय आने पर धत्ता बताने में भी परहेज नहीं किया। क्या किसी अच्छे दिल वाले या सिद्धांतनिष्ठ राजनेता की यही पहचान होनी चाहिए?
नीतीश काले रंग का चश्मा बहुत पहनते हैं ताकि आंखों को कोई पढ़ न सके। नीयत उनकी कभी भी सही नहीं रही; वे राजनीति के साइलेंट किलर कहे जा सकते हैं। जिसने भी उनके संगठन में अपनी अलग राय या पसंद रखी, उसी की उन्होंने छुट्टी कर दी। लालू के बाद जॉर्ज फ़र्नांडिस उनके दूसरे शिकार रहे , फिर तो जिसने भी विरोध किया उसी को ठिकाने लगा दिया। लालू के धुर विरोधी रहे प्रभुनाथ सिंह ने जब जदयू के विधायकों मे अपनी पैठ बनानी शुरू की, उन्हें पार्टी से ही निकाल दिया। शिवानंद तिवारी ने सार्वजनिक विरोध क्या किया, घर बिठा दिए गए।

जीतन राम मांझी ने मुख्यमंत्री के रूप में थोड़ी लोकप्रियता हासिल की नहीं कि उन्हें ज़बरन गद्दी से उतार फेंका। लोकतंत्र में नीतीश पहले ऐसे नेता हैं जिनका अहंकारी दावा होता है कि मांझी को मुख्यमंत्री उन्होंने बनाया, उनके विधायकों ने नहीं। कोई एक नेता किसी को जब चाहे मुख्यमंत्री बना दे और जब चाहे अपमानित कर उसे बाहर का रास्ता दिखा दे ऐसा काम कोई अच्छी नीयत वाला व्यक्ति कर ही नहीं सकता।
मुख्यमंत्री के रूप में उनका अॅक्शन ख़ुद को ऊँचा बनाए रखने के अलावा क्या रहा? दस साल का शासनकाल एक अच्छा समय होता है जिसमें राज्य को अंधकार से निकालकर उजाले की तरफ़ ले जाया जा सकता है। पर नीतीश का 10 साल का समय सिर्फ़ जनता को सब्ज़ बाग़ दिखाने में ही बित गया। “बिजली नही तो वोट नहीं” का जब नारा दिया तब तो उन्होंने स्पष्टीकरण नहीं दिया कि उन्हें यह बात सिर्फ़ पटना के लिए कही थी। पूरे राज्य को आज भी अंधेरे में रखकर किस विकास की बात कर सकते है नीतीश?
उनको राजनीति में आए चार दशक हे चुके हैं। लेकिन विकास की उनकी अवधारणा आज भी आज़ादी के पहले वाली है। जहाँ अब सभी राज्य सुपर हाईवे की बात करते हैं, बिहार में फोरलेन की सड़क सबसे बड़ी उपलब्धि का मानक है। जहाँ अन्य राज्य के मुख्यमंत्री इंडस्ट्रीयल कॉरीडोर बना रहे हैं वहीं बिहार आज भी केवल श्रमिक वाले राज्य के रूप में ही जाना जाता है। कोटा, पूणा, बंगलोर, हैदराबाद आदि आज भी बिहार के छात्रों के लिए तकनीकी शिक्षा के केन्द बने हुए हैं — दस साल में बिहार ने ऐसा कोई केन्द्र नहीं बनाया।
एक मुख्यमंत्री जो यह दावा करे कि बिहार को वह विकास के पथ पर ले आया है और धरातल पर वास्तविकता कुछ और हो — क्या उसके इस अॅक्शन को सही कहा जा सकता है? “डीएनए” के राजनैतिक तर्जुमां को फ़ॉरेंसिक विज्ञान से जोड़ने वाले नीतीश बाबू आप खुद ही बताएँ कि क्या आप का डीएनए बिहार का डीएनए हो सकता है?
ये लेखक के निजी विचार हैं।
You must log in to post a comment.