सिर्फ़ न्यूज़ पर साहित्यिक चर्चा का शुभारम्भ हम राष्ट्रकवि एवं महान लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को समर्पित करते हैं। इसी सप्ताह 24 अप्रैल को उनकी पुण्यतिथि है। आज जब हम उनकी रचनाओं को पढ़ते हैं तो उनके समय और आज के समाज में कई अंतर पाते हैं और कुछ समानताएँ भी। आज हमारे बीच उनकी तरह राजनैतिक विचारधारा वाले कवि मौजूद नहीं हैं — यह अंतर है। तत्कालीन समस्याएँ आज भी राष्ट्र को विचलित करती हैं — यह समानता है।
विगत शताब्दी में ‘दिनकर’ एक ऐसे कवि के रूप में उभरे जिनकी रचनाओं, कविता संग्रह, गद्य आदि के बिना हमारा हिंदी साहित्य अधूरा रह जाता। वे एक महान रचनाकार के रूप में हमारे मस्तिष्क में विद्यमान रहेंगे। छायावादी युग के अन्य कई कवियों में ‘दिनकर’ ने अपने आपको एक राष्ट्रकवि के रूप में प्रतिष्टित किया।
उनका जितना योगदान हिंदी साहित्य के जगत में रहा उतना ही समाज के प्रति रहा। उनकी कविता व उनके गद्य से यह पता चलता है कि वे समाज के प्रति सदैव दायित्वशील रहे। तत्कालीन समाज को किस तरह संवेदनशील और जागरूक किया जाए इस कोशिश में ‘दिनकर’ जुटे रहे। उनके विचारों से प्रभावित होकर उस युग के हज़ारों युवाओं ने स्वयं को देश और समाज सेवा में झोंक दिया।

1970 के दशक में इंदिरा गाँधी के तानाशाही रवैये के ख़िलाफ़ जिन विद्यार्थियों ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आन्दोलन किया उनके लिए ‘दिनकर’ की पंक्ति “सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है” बहुत प्रेरणादायक रही। उस कालखंड की अवस्था बेहद दुखदायी और संकटमय थी। सन् 1974 ई० में ‘दिनकर’ का देहावसान हो चुका था पर उन्होंने जन-जन में जो चेतना जगाई थी वह शिखा अब भी प्रज्ज्वलित थी। जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल के दौरान रामलीला मैदान में अपने भाषण की शुरुआत ‘दिनकर’ द्वारा सन् 1950 में रचित उपर्युक्त कविता से की जिससे लोग लोकतान्त्रिक भावना से ओतप्रोत हो गए और उन्होंने नागरिकों की सत्ता पुनः प्रतिष्ठित करने की ठान ली।
प्रायः ‘दिनकर’ देशभक्ति की कविताएँ लिखते थे। उनके विषय मूलतः भारत की संस्कृति, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय एकता, धर्म, नैतिकता और विज्ञान थे। उन्होंने जितने भी गद्य एवं पद्य लिखे उनमें तत्कालीन समाज के राजनैतिक दृश्य एवं राजनेताओं की प्रवृत्तियों का स्पस्ष्ट वर्णन है। परन्तु यह एक ऐसी रचना थी जिसके द्वारा उन्होंने हमें केवल बाह्य शत्रुओं से नहीं बल्कि अंदरूनी दुश्मनों से भी आगाह किया। वीर रस की यह कविता दो साल पहले हुए जन लोकपाल आन्दोलन तथा विदेश में फंसे काले धन को लौटा लाने की मुहीम के दौरान बड़े पैमाने पर विभिन्न अर्द्ध-राजनैतिक मंचों से सुनी गई। जनता के इस विद्रोही तेवर से सरकार एक बार फिर काँप उठी और कभी अण्णा हज़ारे तो कभी बाबा रामदेव से सुलह की तरकीबें ढूँढने लगी।
आजकल अहिंसा को राजनीति में अकाट्य तर्क की तरह पेश किया जाता है जो हमारी सनातन परंपरा के विरुद्ध है। पौराणिक और ऐतिहासिक तौर पर हम शान्ति को प्राथमिकता अवश्य देते रहे किन्तु हथियार उठा लेने का अंतिम उपाय हमने कभी त्यागा नहीं। ‘दिनकर’ के संग्रह में “कुरुक्षेत्र”, “रश्मिरथी” और“परशुराम की प्रतीक्षा” नामक कविताएँ अगर लोकप्रिय हुईं तो शायद उसके पीछे यह वजह रही कि राष्ट्रकवि ने हमारी इस परंपरा का इन रचनाओं में मान रखा। इनमें से पहले काव्य में उन्होंने कहा कि युद्ध विनाशकारी है परन्तु स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आवश्यक भी है।
‘दिनकर’ अपने विचारों के माध्यम से देश में सुधार लाना चाहते थे। उन्होंने राष्ट्र में प्रेम और देश में शांति बनाये रखने के लिए बहुत कुछ किया। क्रांतिकारी सोच एवं अधिकारों के लिए संघर्षरत रहने की भावना अगर कहीं हमेशा जीवित रहीं तो उनकी कविताओं में रहीं। सन् 1959 ई० में उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया।
आज ‘दिनकर’ जैसी भाषा शैली का प्रयोग किसी भी कवि की रचना में देखने को नहीं मिलता। हमारे समाज से ऐसी अभिव्यक्ति विलुप्त हो गयी है।
‘दिनकर’ ने अपने समकालीन कवियों से अपना विचार स्वतंत्र रखा जिसके प्रतिफल स्वरूप उस काल के कवियों ने उनके प्रति अपना प्रेम और सम्मान व्यक्त किया। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा, “’दिनकर’ की मातृभाषा हिंदी न होते हुए भी उन्होंने इस भाषा के प्रति अपना जो प्रेम व्यक्त किया अपनी कविता और रचनाओं के द्वारा वह बहुत सराहनीय रहा।” रामवृक्ष ‘बेनीपुरी’ ने कहा, “’दिनकर’ की आवाज़ और उनकी कविता से विश्व में बहुत क्रांतिकारी और आंदोलनकारी पैदा हुए जो समाज की सेवा में निस्वार्थ भाव से जुड़ गए। हरिवंश राय ‘बच्चन’ ने कहा, “’दिनकर’ को चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने चाहियें — एक उनकी कविता के लिए, दूसरा उनके गद्य के लिए, तीसरा उनकी भाषा शैली के लिए तथा चौथा उनके हिंदी साहित्य के प्रति योगदान के लिए।”
उपरिलिखित कविताओं के अलावा “रेणुका”, “हुंकार”तथा “उर्वशी” शीर्षक वाली रचनाएँ भी बहुचर्चित हैं। आज भी ‘दिनकर’ के शब्द प्रासंगिक व प्रेरणादायी हैं। राजनेताओं से उन्होंने हमें किस प्रकार सचेत किया यह आप इन पंक्तियों में देखिये —
वह कौन रोता है वहाँ—
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की? (कुरुक्षेत्र)
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रीय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। (रश्मिरथी)
‘दिनकर’ हमारे राष्ट्र की भाषा की समस्याको लेकर काफी चिंतित रहते थे। इस विषय पर उन्होंने दो पुस्तकें लिखीं — “राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता” और “राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी”। उनके अनुसार हिन्दी भाषा ही एक ऐसी भाषा है जिसके माध्यम से भारत की संस्कृति और उसकी एकता व अखंडता बनी रह सकती है।
आज से कई दशक पहले ‘दिनकर’ ने यह चिंता व्यक्त की थी कि देश की समस्याओं का समाधान बुद्धिजीवी नहीं, अपितु धर्म और सभ्यता के मार्ग पर चलने वाले लोग हैं; धर्म सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र है; धर्म ही कोमलता है, धर्म ही दया है, धर्म ही विश्वबंधुत्व है और शांति भी।
आज ‘दिनकर’ हमारे बीच नहीं हैं औरयह समाज आज भी इन चिन्ताओं से मुक्त नहीं हुआ है। धर्म का सही अर्थ आज भी समाज के लोग नहीं समझ पाये हैं। आज इतने वर्षों के बाद भी हमारा समाज पुराने संकटों से जूझ रहा है। राजनेताओं के अंदर आज भी देशप्रेम की भावना नहीं है। आज भी राजनीति में जो आता है अपने स्वार्थ के लिए आता है, धर्म के नाम पर मज़हब का व्यापार करता है। धर्म के रास्ते पर देश को वापस लाना हमारी तरफ़ से ‘दिनकर’ को सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी।
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