यह हमेशा से होता आया है कि किसी भी मशीन का सॉफ़्टवेयर उसके हार्डवेयर को संचालित करता रहा है और सॉफ़्टवेयर के दोषों से हार्डवेयर अपनी तमाम ताक़त के बावजूद पार नहीं पा सका। इंसान में इंसानी दिमाग सॉफ़्टवेयर की भूमिका में होता है। हम किसी भी घटना, व्यक्ति या प्रसंग का विश्लेषण अपनी मानवीय कमज़ोरियों के साथ ही करते हैं और अक्सर कमज़ोर विश्लेषण ही हमारे कमज़ोर भविष्य को जन्म देते हैं।
यह भारतीय लोकतंत्र के साथ भी होता रहा है। आज नरेन्द्र मोदी भाजपा के सर्वोच्च नेता और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में हमारे सामने हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस सफ़र में अहम् भूमिका निभाकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा है। भारत का भविष्य मोदी सरकार, भाजपा और RSS के क्रियाकलापों पर निर्भर करता है। पर क्या यह पूरा सच है? क्या वाक़ई ये तीनों ही भारतीय लोकतंत्र के इस ऐतिहासिक जनादेश के नायक हैं? या कुछ और भी है जिसे इसका श्रेय जाना चाहिए लेकिन संकुचित दृष्टि से इतिहास लिखने के अभ्यस्त हम लोग ऐसा करने से डर रहे हैं? क्या यह डर इसलिए है कि वह व्यक्ति या वह दौर अभी गुज़रा नहीं है और भविष्य अनिश्चित है, अगर हमने आज उसे श्रेय दिया तो कल वह बड़ा ख़तरा बनकर सामने न आ जाए!
याद कीजिये 2004 का लोकसभा चुनाव और उसके बाद के लगभग 10 साल। एक ओर जहाँ यूपीए 2009 तक लगातार बेहतर प्रदर्शन करती रही, वहीं दूसरी ओर विपक्ष लगातार या तो मैदान से नदारद रहा या अपने ही पाले में गोल करता रहा। यह वही समय था जब 6 साल सत्ता सुख भोग चुके भाजपा नेता सड़क से नाता तोड़ कर एसी कमरों में बैठे इस बात का इन्तज़ार कर रहे थे कि जनता एक दिन यूपीए से नाराज़ होगी और उनकी बारी आएगी। यहाँ तक कि 2009 के बाद जब यूपीए ने ग़लतियाँ करनी शुरू की तब भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा आपसी संघर्ष में ही उलझी रही। यक़ीनन जनता से कोई रिश्ता इस पार्टी का नहीं था और इस रिश्ते को बनाने की कोई कोशिश भी नहीं हो रही थी।
ऐसे में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस के सामने पहली मुश्किल 2011 की शुरुआत में आई जब रालेगनसिद्धि का एक बुज़ुर्ग दिल्ली के जंतर मंतर पर आकर सरकार के ख़िलाफ़ भूख हड़ताल पर बैठ गया। मुद्दा था भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मज़बूत क़ानून। न्यूज़ चैनल्स ने इसे खूब उछाला और चार दिन में ही मामले की गंभीरता को परखते हुए यूपीए सरकार ने क़ानून के लिए बनी ड्राफ्टिंग कमेटी में सिविल सोसायटी के 5 लोगों को रख लिया। यह एक शुरुआती मगर बड़ी जीत थी और इस जीत में किरण बेदी, स्वामी रामदेव, प्रशांत भूषण, स्वामी अग्निवेश इत्यादि सभी लोगों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई, मगर इस जीत का असली आर्किटेक्ट एक नौजवान आरटीआई कार्यकर्ता था जिसका नाम था अरविन्द केजरीवाल। अरविन्द की ताक़त केवल तीन चीज़ें थीं — जनता के बीच रहकर उनके जैसा बनकर सत्ता को ललकारना, अपने आन्दोलन से बड़े-बड़े नामों को जोड़ते रहना और उनकी एक आन्दोलनकारी के रूप में फ़ैसले लेने की अद्भुत क्षमता जिसके सामने सरकार नतमस्तक नज़र आई।
इसके बाद भी विपक्ष सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरने में नाकाम रहा जिसका बड़ा कारण लगभग सभी पार्टियों में व्याप्त भ्रष्टाचार था। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, डीएमके, एआईडीएमके, एनसीपी सभी पार्टियाँ इस हमाम में नंगी भी थीं और साझेदार भी।
अप्रैल 2011 के बाद अगस्त 2011 में जब लोकपाल के मुद्दे पर दोबारा आन्दोलन हुआ तो अण्णा देश भर में जाना पहचाना नाम थे और जनाक्रोश भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ था। इस जनाक्रोश को अण्णा में अपना हीरो नज़र आ रहा था, भाजपा में नहीं। उस दौर में जनता सड़क से क़ानून बनाने की कोशिश कर रही थी — यह विपक्ष की नाकामी का नतीजा भी था और विपक्ष से जनता की नाउम्मीदी का सुबूत भी। विपक्ष से नाउम्मीदी का ठोस सुबूत उस घटना में देखा जा सकता है जब उमा भारती लोकपाल आन्दोलन के अनशन स्थल पर गई थी और भीड़ ने उनका विरोध करके उन्हें खदेड़ दिया था। सरकार ने यह क़ानून बनाने का भरोसा भी जनता को दिया और बाद में धोखा भी।
अण्णा आन्दोलन सफल रहा या असफल यह चर्चा का विषय हो सकता है लेकिन यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ जनता में ग़ुस्सा भरने का काम इस आन्दोलन ने किया इसमें कोई शक नहीं। इस ग़ुस्से की आग में घी का काम सरकार के मंत्रियों के लगातार उजागर होते घोटालों और उनके लगातार बढ़ते अहंकार ने किया। अण्णा आन्दोलन में कई बार टूट भी हुई और यह अपना रास्ता बदलकर पार्टी भी बन गया। अरविन्द यहाँ भी वही करते रहे जो उन्होंने अण्णा आन्दोलन में किया — जनता से जुड़ना (मिशन बुनियाद), नए नए लोगों को पार्टी से जोड़ना (योगेन्द्र यादव, मेधा पाटेकर और बहुत से बड़े नाम) और चौंकाने वाले निर्णय लेते रहना (केवल दिल्ली में चुनाव लड़ना, टोपी और झाड़ू को पार्टी की पहचान बनाना)।
2012 की शुरुआत में जब आम आदमी पार्टी ने 5 राज्यों में से केवल दिल्ली का विधानसभा चुनाव लड़ने का निर्णय लिया तो देश जैसे दो हिस्सों में बंट गया। एक तरफ़ दिल्ली का माहौल था तो दूसरी तरफ़ पूरे देश का। फिर भी इन दोनों में एक चीज़ समान थी — जनता में कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के ख़िलाफ़ लगातार बढ़ता ग़ुस्सा और भाजपा के प्रति अविश्वास। दिल्ली और पूरे देश के माहौल में अंतर यह था कि दिल्ली को विकल्प मिल गया था जबकि देश को अभी भी विकल्प की तलाश थी।
कांग्रेस के ख़िलाफ़ विकल्प बनना अरविन्द केजरीवाल के लिए आसान नहीं था; इसके लिए उन्हें एक तरफ़ दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के ख़िलाफ़ बिजली-पानी आन्दोलन करना पड़ा, दूसरी तरफ़ इस लड़ाई को आम आदमी बनाम कांग्रेस बनाने के लिए उन्होंने कांग्रेस के प्रथम परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाये और सुबूतों के साथ इन्हें उजागर भी किया। 2012 के मध्य तक हालात यह थे कि एक ओर एक साल से भी कम पुरानी पार्टी जहाँ खुद को 120 साल पुरानी पार्टी का प्रतिद्वंदी साबित करने में कामयाब हो रही थी वहीँ देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता बिजली पानी के मुद्दों पर घड़ियाली आँसू बहा रहे थे। इसके बाद माहौल में बदलाव आना शुरू हुआ जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरदहस्त प्राप्त नरेन्द्र मोदी गुजरात मुख्यमंत्री के तौर पर आशाओं भरा रिपोर्ट कार्ड लेकर दिल्ली आये और गुटबाजी में फंसी भाजपा को आरएसएस के डंडे के डर से नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़ा होना पड़ा।
लेकिन तब भी दिल्ली के लोग अपना हीरो भाजपा के किसी नेता की बजाय अरविन्द केजरीवाल में देख रहे थे, इसे समझते हुए भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार विजय गोयल की जगह डा. हर्षवर्धन को बनाया और आम आदमी पार्टी की तर्ज़ पर हर विधानसभा सीट के लिए अलग घोषणा पत्र भी बनाया। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी अरविन्द केजरीवाल की पार्टी लगातार जनता और भाजपा दोनों को चौंकाती रही। भाजपा हर बार चौंकने के बाद आम आदमी पार्टी की नक़ल करने की कोशिश करती तो आम जनता अरविन्द केजरीवाल के और क़रीब हो जाती। चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए भी चौंकाने वाले थे और शायद आम आदमी पार्टी के लिए भी। इसीलिए इसके बाद आम आदमी पार्टी के नेता जहाँ लगातार विवादों भरे फैसले लेते रहे वहीँ भाजपा नरेन्द्र मोदी के पीछे लामबंद और एकजुट होकर लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई।
लोकसभा चुनाव से कहीं पहले अरविन्द केजरीवाल एंड कंपनी कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को जनता के सामने खलनायक साबित कर चुके थे मगर दिल्ली चुनाव के बाद हुई अपनी भूलों के कारण ख़ुद को विकल्प के तौर पर पेश नहीं कर पाए। यह करने में नरेन्द्र मोदी कामयाब रहे और आज वे प्रधानमंत्री हैं। लेकिन फिर भी जनजागरण का श्रेय अण्णा आन्दोलन, अण्णा टीम और ख़ास तौर पर अरविन्द केजरीवाल को जाता है। यह शायद इतिहास में दर्ज न हो पाए क्योंकि इतिहास विजेताओं के नजरिये से लिखा जाता है और विजेता इस वक्त भाजपा है।
लेखक आम आदमी पार्टी के पूर्व सदस्य हैं। यहाँ छपी राय उनकी निजी है।
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