चुनाव संपन्न हो गया। नई सरकार बन गई। अब भारतीय मन के सामने एक ही कौतुहल बचा है, अच्छे दिन के अर्थ क्या हैं? सरकार के पास उसके लिए अच्छे दिन के मायने क्या है? 125 करोड़ लोगों के लिए अच्छे दिन किस तरह आएंगे? किस रूप में आएंगे और कब आएंगे? क्या आर्थिक संपन्नता ही अच्छे दिन के मतालिब हैं? और सब इस संपन्नता के स्वामी बन पाएंगे? शायद नहीं।
सदियों के देश के जीवन काल में न जाने कितनी शासन व्यवस्थाएँ आईं? न जाने कितने चक्रवर्ती राजा और मंत्री आए, न जाने कितनी नीतियां और योजनाएं बनीं। न जाने कितने साधन और संसाघन लगे, पर आज तक सबके लिए समान रूप से संपन्नता कभी नहीं आई। सारे वाद मिलकर भी आर्थिक भेदभाव को नहीं मिटा सके? यानी सब अमीर हो जाएं, सबकी विपन्नता ख़त्म हो जाए, अच्छे दिन के ये अर्थ हो नहीं सकते।
अच्छे दिन का अगला पड़ाव सामाजिक बराबरी का हो सकता है? सिर्फ आर्थिक रूप से नहीं बल्कि अधिकार और मान मर्यादा के हिसाब से भी। यानी अच्छे दिन का एक सबब यह भी हो सकता है कि वर्ण और वर्ग के विभेद समाज से मिट जाएँ। क्या यह संभव है? इसका जवाब न में नहीं हो सकता। पर हाँ के साथ बहुत सारे किंतु-परंतु लगे हो सकते हैं। भारत के संविधान में यूं तो सभी को समान अधिकार की गारंटी दी गई है। पर उसी संविधान को कतर व्यौत कर हमारे ही शासकों ने ग़ैर-बराबरी समाज को बनाए और चलाए रखने की भी गारंटी कर दी है। यद्यपि यह संभव है कि सामाजिक ग़ैर-बराबरी को दूर करने के लिए “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” के नारे को अमली जामा पहना दिया जाए।
“एक भारत” यानी संविधान और शासन की नज़र में सब एक; न किसी के लिए कोई आरक्षण न किसी का कोई अधिकार हनन। न जाति के आधार पर न मज़हब के आधार पर। यह कार्य संभव की सूची में आने के बाद भी आज तक असंभव बना है और आगे बना ही रहेगा। क्योंकि राजनैतिक ताना-बाना इसे ख़त्म नहीं करने देगा। शायद नई सरकार भी ऐसी किसी क़ानूनी ढाँचे में देश को लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी जहां किसी का कोई विशेषाधिकार नहीं हो।
जन्म के आधार पर ऊँच-नीच की क़ानूनी व्याख्या बंद करने का जोख़िम मौजूदा हालात में लेना सरकार के अस्तित्व को दाव पर लगाने जैसा होगा। जो शायद नई सरकार भी नहीं कर सके। भारत की भौगोलिक बनावट और जनसंख्या के स्वरूप फ़िलहाल किसी भी ऐसी संभावना को जन्म नहीं होने देंगे जहां आरक्षण-रहित शासन व्यवस्था को लागू किया जा सके। अर्थात उनके लिए अच्छे दिन अभी भी नहीं आने वाले जो योग्य होने के बावजूद जन्म के आधार पर किसी ओहदे या अवसर के लिए अयोग्य ठहराए जाते रहे हैं। इस पहलू में एक संभावना सिर्फ़ यह बचती है कि अवसरों का सृजन इतना ज़्यादा हो कि सभी को उसके गुण और इच्छा के अनुसार जगह प्राप्त हो सके। ऐसा तत्काल होता दिखाई नहीं देता। अवसर संकुचित होते जा रहे हैं और जनसंख्या बढ़ती जा रही है।
देश की 50 करोड़ से ज़्यादा की आबादी को काम चाहिए। पहले पेट भर खाने के लिए, फिर जीवन स्तर को उन्नत बनाने के लिए। पिछले आँकड़े यह बताते हैं कि बहुत अच्छे दिनों में भी किसी सरकार ने एक साल में एक करोड़ से ज़्यादा रोज़गार के सृजन नहीं कर पाई है। बल्कि विगत दस वर्षों में रोज़गार की वृद्धि दर 2% से भी कम रही है। क्या 5 साल में किसी चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है? लोगों में बहुत ज़्यादा उम्मीदें हैं और इन उम्मीदों को जगाने वाले नेतृत्व के सामने बहुत बड़ी चुनौती।
शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय और सुरक्षा के क्षेत्र में भी अच्छे दिनों की ज़रूरत है। ख़ास कर तब और जब जीवनयापन बहुत दुरूह और महंगा हो। प्राथमिक शिक्षा की सुविधा के लिए ही हमारे देश में संघर्ष जारी है, उच्च शिक्षा की बात तो बाद में। अच्छे स्कूल और अच्छे शैक्षिक वातावरण को ख़रीदना पड़ता है। शुल्क से लेकर प्रवेश प्रक्रिया तक में शासन और न्यायालय को दख़ल देना पड़ता है। अच्छे दिन सबको शिक्षा, सबको स्वास्थ्य और सबको न्याय देकर लाए जा सकते हैं। सरकार इसमें तत्काल परिणाम भी ला सकती है। केंद्र से लेकर राज्यों की योजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय के लिए वित्त का प्रयाप्त इंतज़ाम है। लेकिन बद-इंतजामी ने इन मूलभूत आवश्यकताओं को भी सपने सरीखे बना दिए हैं।
प्रधानमंत्री जिन मुद्दों को चुनाव प्रचार के दौरान भुनाते रहे उन्हीं मुद्दों पर वे ध्यान लगाए रखें तो अच्छे दिन का जुमला हकीकत में बदल सकता है। प्रधानमंत्री ने काफ़ी ज़ोर दिया कि वे चाय बेच कर अपनी जीविका चलाते रहे, इसलिए वह गरीबी को क़रीब से जानते हैं। ग़रीबी यूँ तो पूरी मानव सभ्यता के लिए अभिशाप है, लेकिन भारत के संदर्भ में देखें तो आँकड़ों के जाल में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम उलझ कर रह गये हैं। दरिद्र को रोटी और सम्मान दोनों दिलाना अच्छे दिन के मानी हो सकते हैं। सम्मान का अभिप्राय समाज में अच्छे ओहदे से होना चाहिए। अच्छे ओहदे का अभिप्राय है कि व्यक्ति आत्मनिर्भर होना चाहिए, आत्मनिर्भरता का अभिप्राय है कि उसके पास आर्थिक उपार्जन के अवसर होने होने चाहिए और आर्थिक उपार्जन के लिए देश में रोज़गार और व्यापार के असीमित अवसर उत्पन्न करने का लक्ष्य होना चाहिए।
अच्छे दिनों के भागीदार 125 करोड़ लोग हैं। इनमें छह करोड़ वे लोग हैं जिनकी उम्र 65 वर्ष से ऊपर है। यानी इनके लिए सामाजिक सुरक्षा के इंतज़ाम अच्छे दिन के मतालिब हो सकते हैं। जीवनयापन करने लायक वृद्धा पेंशन, अस्पतालों में अधिक उम्र में होने वाली बीमारियों के लिए विशेष विभाग, इलाज पर आने वाले ख़र्चों के लिए सस्ती बीमा सुविधा और वृद्धों की सुरक्षा सुनिश्चत कर प्रधानमंत्री इस वर्ग को अच्छे दिन की ख़ुशहाली दे सकते हैं। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती 65 करोड़ उस वर्ग की है जिसकी उम्र 15 से 65 वर्ष की है। इस उम्र वर्ग पर ही देश का वर्तमान और भविष्य टिका हुआ है। इनके बेकार और बेरोज़गार रहने की क़ीमत देश नहीं चुका सकता। जिस रफ़्तार से हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, आने वाले दिनों में हमारे लिए यह सोचने का अवसर नहीं रहेगा कि हम इतनी बड़ी जनता का भरण पोषण करें कैसे?
15 से 60 वर्ष की आयु वर्ग वालों के साथ देश की संभावनाएं भी जुड़ी हैं। उत्पादकता इन्हीं के पास है। दरअस्ल अच्छे दिन इन्हीं के ज़रिए आने वाले हैं। अपने चुनाव प्रचार के दौरान स्वयं अब के प्रंधानमंत्री कहा करते थे कि युवाओं के मन से निराशा और क्षोभ निकालना पड़ेगा। काम से इन्हें जोड़ना पड़ेगा। चीन की चुनौती से पार पाने के लिए इस वर्ग के लोगों को कुशल बनाना पड़ेगा, इन्हें आर्थिक आज़ादी देनी पड़ेगी।
उद्योग और व्यापार भी अच्छे दिन की राह देख रहे हैं। भ्रष्टाचार-मुक्त शासन व्यवस्था और स्वस्थ स्पर्धा भारतीय उद्योग की ज़रूरत और उम्मीद है। अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री इन दोनों परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिए जाने जाते हैं। गुजरात मॉडल की बात गुजरात के बाहर जिन्होंने सुना है उन्होंने यही सुना है कि वहां 24 घंटे में उद्योग सम्बन्धी सारी औपचारिकताएं पूरी हो जाती हैं। अफ़सरशाही काम रोकने के लिए नहीं, काम करने के लिए जानी जाती है। पूरे देश में यह व्यवस्था लागू हो जाए और हमारे उद्योग व्यापार फिर से चल निकले तो अच्छे दिन दूर नहीं हैं।
लेखक स्वदेशी पत्रिका के संपादक हैं
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