प्रतिष्ठित इतिहासकार बेनेडिक्ट एंडरसन ने इतिहास के फ़रिश्ते का उल्लेख करते हुए कहा है, “उसका मुंह अतीत की ओर है, ध्वंस पर उसका पैर है, लेकिन सुन्दर जगहों से आने वाली हवाएँ उसे आगे की ओर धकेल रही हैं; इन्हीं हवाओं को हम प्रगति कहते हैं।” इतिहास किसी को मुआफ़ नहीं करता, वह प्रशंसा और निंदा का संकलन करते हुए चलता है और अपना आंकलन पूर्ण तथ्यों के साथ देता है, इसीलिए उसके आईने में सही और ग़लत का विश्लेषण साफ़ दिखाई देता है, जबकि यह सुविधा वर्तमान में जी रहे इंसानों को उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में जीते हुए हमें अतीत के अनुभवों और पूर्वाग्रहों के बीच से रास्ता बनाते हुए अनिश्चित भविष्य में केवल अपने विवेक और पूर्वानुमानों के आधार पर क़दम रखना होता है। अगर आपके क़दम पर पूरी क़ौम, मज़हब या राष्ट्र का भविष्य निर्भर करता हो तो यह ज़िम्मेदारी और ज़्यादा बढ़ जाती है। अपने सातवें दशक में चलते भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के पास भी रोज़ मौक़ा होता है अपने नुमाइंदों को उनके प्रदर्शन के आधार पर अंक प्रदान करने का। आज ऐसी ही एक कोशिश हम करने जा रहे हैं भारतीय प्रधानमंत्रियों के कार्यकालों का विश्लेषण करते हुए।
आज़ाद भारत के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू की बात करें तो उन्हें लगभग सत्रह साल (1947-64) काम करने का मौक़ा मिला। यह किसी भी प्रधानमन्त्री का सबसे लम्बा कार्यकाल भी है। उन्हें मजबूत सहयोगी मिले (सरदार वल्लभभाई पटेल, बाबासाहेब भीम राव अम्बेडकर) तो बड़ी चुनौतियाँ भी मिलीं — विभाजन की त्रासदी के बाद का पुनर्वास और सौहार्द क़ायम करना, आर्थिक विकास की नींव डालना, रियासतों में बँटे भारत का नक़्शा जोड़ना। नेहरू इन कामों में सफल भी रहे। एक ओर उन्होंने पटेल के सहारे देश को एक किया, वहीँ अम्बेडकर की नीतियों के सहारे सामजिक समानता का एजेंडा भी सामने रखा। इस दौर में एक स्वतन्त्र आर्थिक और विदेश नीति का निर्धारण हुआ तो लोकतान्त्रिक असहमति को भी नेहरू ने पूरा सम्मान दिया। नेहरू ख़ुद को स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर मिलने वाले सम्मान को व्यक्तिपूजा में बदलने के ख़तरों को जानते थे। वे इस बारे में अपने सहयोगियों को आगाह भी करते थे। नेहरू काल का एक दिलचस्प वाक़या है कि पचास के दशक में कई राष्ट्रीय अख़बारों में कई मौक़ों पर लेख प्रकाशित हुए जिसमें नेहरू की कमियों के बारे में कड़े शब्दों में लिखा जाता था। ये लेख कोलकाता के किन्हीं “डा० मुखर्जी” के नाम से प्रकाशित होते थे। चीन युद्ध के बाद पता लगा कि ये लेख स्वयं नेहरू लिखा करते थे। लेकिन हर चमकते चाँद की तरह नेहरू भी ख़ुद को कुछ दाग़ों से बचा नहीं पाए। अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उनके मंत्रिमंडल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे (मुंदड़ा घोटाला), सत्ता का दुरुपयोग भी हुआ (केरल सरकार की बर्ख़ास्तगी) और चीन युद्ध में भारत की करारी हार ने भी उनकी छवि धूमिल की। प्रसिद्द इतिहासकार रामचंद्र गुहा के शब्दों में “अगर नेहरू 1957 में राजनीति छोड़ देते तो हम आज उन्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमन्त्री के तौर पर याद करते।” लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं हुआ।
इसके बाद एक बहुत छोटे समय में देश की नुमाइन्दगी का मौक़ा लाल बहादुर शास्त्री को मिला लेकिन असमय मृत्यु के कारण वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। फिर भी उन्हें एक अच्छे प्रधानमन्त्री के तौर पर याद किया जाता है। उन्होंने हरित क्रान्ति की नींव रखी और देश को कुशल नेतृत्व दिया। वे लम्बे समय तक प्रधानमन्त्री रहते तो शायद आज भारत कुछ और होता, जैसा है उससे कहीं बेहतर।
शास्त्री जी के बाद इंदिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनीं और नेहरू के बाद दूसरी सबसे लम्बे समय तक प्रधानमंत्री कार्यालय में रहने वाली प्रधानमंत्री साबित हुई। लेकिन उनका कार्यकाल जितना लम्बा था उतना बेहतर साबित नहीं हुआ। वे 1967 से 1977 और 1980 से 1984 तक प्रधानमंत्री रहीं। वे दृढ नेतृत्व प्रदान करने वाली, विज्ञान और तकनीक को प्रोत्साहन देने वाली, धर्मं-भाषा के आधार पर समानता की पक्षधर और व्यापक नज़रिया रखने वाली नेत्री थीं लेकिन लोकतान्त्रिक सत्ता को व्यक्तिगत सत्ता समझने का दंभ पालने से ख़ुद को वे कभी नहीं रोक पाईं। एक ओर जहाँ उनके पिता के समय प्रशासनिक सेवाओं और न्यायपालिका की स्वायत्तता का पूरा सम्मान किया गया वहीँ इंदिरा गाँधी ने प्रतिबद्ध नौकरशाहों और न्यायाधीशों को तरजीह दी। उनकी इसी शैली के कारण कांग्रेस पार्टी में भी आतंरिक लोकतंत्र का ख़ात्मा हुआ और यह केवल एक पारिवारिक उद्यम बनकर रह गई। उनके समय में “इंडिया इज़ इंदिरा एंड इंदिरा इज़ इंडिया” (लेखक देवकांत बरुआ, कांग्रेसी नेता) जैसे नारे प्रचलित हुए और कांग्रेस पार्टी में असहमत नेताओं को निशाने पर लेकर बाहर का रास्ता दिखाया गया। फलस्वरूप मज़बूत राज्य इकाइयाँ ध्वस्त हो गईं और इंदिरा स्वयं कांग्रेस पार्टी का पर्यायवाची बन गईं। यही तरीक़ा प्रशासनिक सेवाओं और न्यायपालिकाओं में भी अपनाया गया। उनकी तानाशाही प्रवत्तियों के कारण आपातकाल की नौबत आई और लोकतंत्र पर एक बड़ा दाग़ प्रेस की स्वतंत्रता छीनने और विपक्षी नेताओं को जेल में डालने के रूप में लगा। इंदिरा की एक और बड़ी नाकामी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद आर्थिक सुधार न करके राष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देना भी रही।
इंदिरा गाँधी और नरेंद्र मोदी के बीच चार प्रधानमंत्री ऐसे रहे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया, राजीव गाँधी, पी० वी० नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह। इनमें से राजीव गाँधी एक थोपे गए प्रधानमंत्री के तौर पर देश के सामने नमूदार हुए लेकिन अपने शुरूआती वर्षों में किसी धूमकेतु की तरह भारतीय राजनीति में छा गए। उन्होंने तकनीक को बढ़ावा दिया, युवा प्रतिभाओं को आगे आने का मौका दिया, अर्थव्यवस्था के दरवाज़े दुनिया के लिए खोलने की शुरुआत की। लेकिन निजी क़ानूनों के मामले में नेहरू द्वारा की गई शुरुआत को जब बहुसंख्यक तबके के बाद अल्पसंख्यक तबके पर लागू करने की बात आई तो उनके कदम लड़खड़ा गए। परिस्थियाँ अनुकूल थीं; 1986 में शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने बदलाव की नींव रखने वाला फ़ैसला दिया था, राजीव के मंत्रिमंडल में प्रगतिशील मुस्लिम मंत्री आरिफ़ मोहम्मद ख़ान थे, लेकिन राजीव ने कुछ कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक गए और सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पलट दिया। उसके बाद अयोध्या मंदिर का ताला खुलवाना उनकी दूसरी सबसे बड़ी भूल थी। इसने देश को लगभग दो दशकों के लिए सांप्रदायिक राजनीति में झोंक दिया। यहीं से कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बनने वाली पार्टी को उपजाऊ ज़मीन मिली।
नरसिंह राव ने आर्थिक और राजनैतिक दोनों रूप से कमज़ोर सरकार का नेतृत्व करते हुए उत्कृष्ट काम किया। अर्थव्यवस्था के दरवाज़े दुनिया के लिए पूरी तरह खोले। विदेश नीति को नए आयाम दिए। इसमें उनके सिपहसालार मनमोहन सिंह को भी श्रेय जाएगा। पीएम राव की कमजोरियों में कई मौक़ों पर कट्टरपंथियों को मिलने वाला प्रोत्साहन, सदन में सरकार बचाने के लिए वोटों की ख़रीद फरोख़्त और सरकार जाने के बाद हुए घोटालों का उजागर होना था। 1996 में राव सरकार के गिरने के बाद के दौर में उनके कार्यकाल में हुए घोटालों का रोशनी में आना इतना आम और दोहराव पूर्ण था कि राष्ट्रीय अख़बार भी इसे इसी तरह छापने लगे जैसे किसी स्थानीय अख़बार में दो पक्षों के बीच होने वाली झड़प की खबर हो।
अटल बिहारी वाजपेयी ने गठबंधन धर्म का पालन करते हुए आर्थिक उदारीकरण को आगे बढ़ाया। इसके लिए उन्होंने संघ की नाराज़गी भी मोल ली। एक शालीन और संयमी प्रधानमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा करते हुए उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया, जो भारतीय राजनीति में एक दुर्लभ घटना जैसा है। उनके समय में ताबूत घोटाला और गुजरात दंगों के समय नरेंद्र मोदी पर कार्रवाई न कर पाना जैसी घटनाएँ नकारात्मक श्रेणी में रखी जा सकती हैं।
इसके बाद मनमोहन सिंह आये जो नेहरू और इंदिरा के बाद इकलौते ऐसे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अपने दो कार्यकाल पूरे किये, लेकिन देश कभी उनको प्रधानमंत्री के रूप में देख पाया हो ऐसा लगा नहीं। देश की नज़र हमेशा उनके पीछे खड़े राहुल और सोनिया पर लगी रही जिनकी कृपा से मनमोहन को यह पद मिला था। इस कृपा का पूरा ऋण मनमोहन ने चुकाया भी। देशभक्ति की जगह उनके भाषणों में गांधी परिवार के लिए भक्ति हमेशा दिखाई दी। उन्होंने कई बड़े काम किये जैसे मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा बिल, मगर श्रेय मिला सोनिया गांधी को। राव की कप्तानी में बढ़िया खेलने वाले मनमोहन ख़ुद एक फिसड्डी कप्तान साबित हुए। वे एक अर्थशास्त्री थे लेकिन प्रधानमंत्री रहते हुए वे भूल गए कि अर्थशास्त्र में मज़हब की कोई जगह नहीं होती, उन्होंने देश के संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का बताया (ग़ौर कीजिये, अल्पसंख्यकों का नहीं) । सिंह हमेशा तटस्थ, निर्विकार, हाईकमान के आज्ञापालक, मौनव्रती, आह और वाह से दूर ऐसे प्रधानमंत्री के तौर पर सामने आये जिन्होंने इस पद पर रहते हुए इस पद की गरिमा कम की। महंगाई, आतंकवाद, विदेश नीति, भ्रष्टाचार इत्यादि मामलों के साथ-साथ सिंह देश के साथ संवाद करने में भी कमज़ोर साबित हुए। 10 साल में तीन बार वे प्रेस से मुख़ातिब हुए, उसमें भी आख़री बार पद छोड़ने से कुछ दिन पहले जिसमें उन्होंने भावी प्रधानमंत्री को हत्यारा तक कहा और ख़ुद के साथ न्याय करने की ज़िम्मेदारी इतिहास को सौंपी। उन्होंने अपनी अंतिम प्रेस वार्ता में परमाणु करार को अपनी जिन्दगी का सर्वश्रेष्ठ काम बताया पर 5 साल से अधिक समय गुज़र जाने के बाद भी उसके फ़ायदे गिनाने में वे नामकाम रहे। बेशक सिंह को सामान्य ज्ञान की किताबों में ही जगह मिल पाएगी क्योंकि उनके 10 साल के कार्यकाल को में कोई चमक भरा लम्हा आम जनमानस के अवचेतन में उतारने में वे विफल रहे हैं।
इसके बाद नरेंद्र मोदी सामने आये जिनके पीछे गुजरात की गौरवगाथा थी तो आगे एल० के० आडवाणी, सुषमा स्वराज जैसे कद्दावर नेताओं का विरोध। मोदी सभी बाधाओं से पार पाते हुए एक ऐतिहासिक जनादेश लेकर प्रधानमंत्री बन चुके हैं। अभी उनके बारे में कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगा लेकिन पूत के पाँव पलने में देखने वाला यह देश इतना देखने में ज़रूर सक्षम है कि किस तरह मोदी, ख़ुद को पार्टी और सरकार से बड़े कद के नेता के तौर पर स्थापित करने में दिन-पर-दिन सफल हो रहे हैं और किस तरह वे मीडिया और आमजन की आलोचना के दबाव से परे ऐसे पौधे रोपते जा रहे हैं जिनके फल शायद आने वाले कुछ सालों में हमारे सामने आएँ। इसलिए अभी इन्तजार कीजिये। इतिहास का फ़रिश्ता तथ्यों के संकलन में व्यस्त है, फ़ैसला आने में अभी वक़्त लगेगा लेकिन यक़ीन रखिये जिसने बाकी किसी को नहीं बख़्शा वह इतिहास मोदी से भी कोई सहानुभूति नहीं रखेगा। हमारे सामने सवाल केवल यह है कि जिसने किसी को नहीं बख़्शा क्या वह हमें बख़्शेगा? शायद नहीं, इसलिए ऐसी किसी भी आलोचना से बचें जो इतिहास में दर्ज नहीं होगी या जिसकी इबारत इतिहास के आसमान पर कोयले से लिखी जाएगी। इसलिए इन्तज़ार कीजिये किसी ऐतिहासिक भूल का… और दुआ कीजिये कि वह भूल न हो!
लेखक पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। विगत कई वर्षों से वे सामाजिक आन्दोलन व राजनैतिक विश्लेषण में सक्रिय हैं। इनका स्तम्भ “लेखा-जोखा” हर महीने की 7 और 21 तारीख़ को सिर्फ़ News पर छपेगा।
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